Book Title: Swadeshi Chikitsa Part 01 Dincharya Rutucharya ke Aadhar Par
Author(s): Rajiv Dikshit
Publisher: Swadeshi Prakashan

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Page 81
________________ विश्लेषण : यहाँ केवल 6 तैलों का वर्णन और स्नेह होने के कारण इसी वर्ग में वसा मज्जा और मेदा का भी गुण बताया गया है, वस्तुतः तेल अनेक द्रव्ये से पाया जाता है यथा दन्तोमूलक रक्षोघ्नकरज्जारिष्ट शिग्रुजम् । सुवर्चलेगहुदी पीलु शंखिनी नीसंभवम् ।। सरलागुरूदेवाह्न शिषपासार जन्म च । तुवरारुष्करोत्थं च तीक्ष्णं कट्वम्लपितकृत | ! अर्शकुष्ठ कृमिश्लेष्म शुक्रभेदोऽनिलापहम् । करंज र्निवजे तिक्ते नात्युष्णे तत्र निदिशेत । । कषाय तिक्त कटुकं सारलं व्रण शोधनम् । -भृशोष्णतीक्ष्क्षेकटुके तुवरारुष्करोद्भवे ।। विशेषातकृमि कुष्ठघ्ने तथार्ध्वाधो विरेचने । अक्षातिमुक्तकाक्षोट नालिकेरमधूकजम् ।। त्रपुसैर्वारू कूष्माज्डश्लेष्मातक पियालजम् । वातपित्तहरं वृष्यं, श्लेष्मलं गुरुशीतलम् ।। पित्तश्लेष्म प्रशमनं श्रीपणीकिशुकोद्भवम् । इस प्रकार विभिन्न प्रकार के तैलो में तिल का तेल उतम और ब का तेल अधम माना गया है। अथ मूत्रवर्गः मूत्रं गोऽजाविमहिशीगजाष्वोश्ट्र खरोद्धवम् । पितलं रूक्षतीक्ष्णोंष्ण लवणानुरसं कटु । । कृमिशोफोदरानहशूलपाण्डुकफानिलान् । गुल्मारुचिविषश्वित्रकुष्ठार्शासि जयेल्लघ || अर्थ : मूत्र का गुण - मूत्र शब्द से गो, बकरी, भेड़, भैंस, हथिनी, घोड़ी, ऊँ और गदहे का मूत्र लिया जाता है। सामान्यतः सभी प्रकार का मूत्र पित्तवर्द्धक रूक्ष, तीक्ष्ण, उष्ण, लवणानुरस, रसमें कटु एवं लघु होता है, तथा कृमि, शोथ उदर, आनाह, शूल, पाण्डु, कफ एवं वातविकार तथा गुल्म अरूचि, विषविकार प्रवेत कुष्ठ और अर्श रोग को दूर करता है । विश्लेषण : यहा आठ मूत्रों का निर्देश करते हुये केवल सामान्य रूप में मूत्रों क गुण बताया है किन्तु भिन्न-भिन्न मूत्र भिन्न-भिन्न रोगों में प्रयुक्त होते है जैसेगोमूत्रं कटुतीक्ष्णीष्णं सक्षारत्वात्र वातलम् । लध्वाग्नि दीपनं मेध्यं पितलं कफ वातजित् । । शूल गुल्मोदरानाह विरेकास्थापनादिषु । मूत्रप्रयोगसाध्येषु गव्यं मूत्रं प्रयोजयेत् ।। 80

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