Book Title: Suyagadanga Sutram Part_1
Author(s): Buddhisagar Gani
Publisher: Devchand Lalbhai Pustakoddhar Fund

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Page 303
________________ कथितं, किं तर्हि ? केवलिनो मतमित्येवं भवता ग्राह्यमिति गाथार्थः ॥ ३८॥ [इतिः परिसमात्यर्थे, अबीमीति पूर्ववत् ] الاسعافحالهه قاسمی بهاره رهن وی نهادها بما فيها من هنا في سامحه । इति श्रीपरमसुविहितखरतरगच्छविभूषण-श्रीमत्साधुरङ्गगणिवरगुम्फितायां श्रीसूत्रकृताङ्गदीपिकायां मार्गाध्ययनमेकादशं सम्पूर्णमिति । memememrommerconomromeonmomrinema अथ द्वादशं समवसरणाभिधमध्ययनम् । -eget उक्तमेकादशमध्ययनं साम्प्रतं द्वादशमारभ्यते । चत्तारि समोसरणाणिमाणि, पावादुया जाइं पुढो वयंति । किरियं अकिरियं विणियंति तइयं, अन्नाणमासु चउत्थमेव ॥१॥ व्याख्या-चत्वारि 'समवसरणानि' परतीथिकाभ्युपगमसमहरूपाणि, यानि प्रावादुकाः पृथक्पृथक् प्रवदन्ति, तानि चामूनि अन्वर्थाभिधायिभिः संज्ञापदैनिर्दिश्यन्ते, तद्यथा-एके क्रियावादिनः एके अक्रियावादिनो विनयवादिनस्त्वेके, एके अज्ञानवादिन इति गाथार्थः॥१॥ अथाज्ञानवादिन एव सर्वथा असम्बद्धप्रलापिनः, अतस्तानेवादावाह Jain Education l a LI For Private & Personal Use Only Twww.jainelibrary.org

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