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करने वाले प. पू. चंद्राननाश्रीजी म. सा. ने किया। उन्होंने संयम प्रदान किया, संयम जीवन कैसे जीना वह भी सिखाया और साथ साथ संयम को समुज्ज्वल बनाने के लिए सतत शास्त्राभ्यास करने की प्रेरणा एवं व्यवस्था भी उपलब्ध कराई। आज जीवन में जो कुछ थोड़ा भी अच्छा दिखाई देता है वो सब उनकी प्रेरणारूप सिंचन का फल है। उनके इस उपकार का बदला मैं कभी भी नहीं चूका सकूँगी।
इस सूत्र की गहराई तक पहुँचने में, व्रतों की सूक्ष्मता को समझने में एवं शंकाओं का समाधान करने में मुझे पंडितवर्य सु. श्रा. प्रवीणभाई मोता की खूब सहायता मिली है। समय-समय पर श्रुत के रहस्य को पाने में उनका अमूल्य सहयोग प्राप्त हुआ है । उनके उपकार को भुलाना संभव नहीं ।
इस पुस्तक की समाप्ति पर इसमें वर्णित पदार्थों की शास्त्रानुसारिता को प्रमाणिक करने के लिए मैंने मार्गानुगामी प्रतिभासंपन्न सन्मार्गदर्शक प. पू. आचार्य देव श्रीमद् विजय कीर्तियशसूरीश्वरजी महाराज से विनती की। अनेकविध शासन रक्षा एवं प्रभावना के कार्यों में व्यस्त होने के कारण वे इस कार्य को शीघ्र हाथ में नहीं ले सके, परंतु आखिर में विहार की वयस्तता के बीच भी उन्होंने लेखनी की शब्दशः जाँच की। उन्होंने हिंसा का स्वरूप, कषायों का विवेक आदि अनेक विषयों का विस्तृतीकरण करने का उत्तम सुझाव दिया, जिसके फलस्वरूप इस लेखनी में अधिक सूक्ष्मता आई है।
परार्थपरायण पंन्यासप्रवर प. पू. भव्यदर्शन विजयजी म. सा. ने इसके पहले सूत्र संवेदना भाग २ का निरीक्षण किया था । उस कारण बहुत सी भाषाकीय भूलों में सुधार आ सका तथा पदार्थ की सचोटता भी आ सकी थी। इस कारण यह भाग भी वे देखें ऐसी मेरी भावना थी । आपश्री ने सहर्ष स्वीकृति देकर संपूर्ण लेखन बारीकी से जाँचा । इसके अलावा सेवाभावी गणिवर्य हर्षवर्धन विजय म. सा. तथा पू. मुनिराज श्री संयमकीर्ति विजय म. सा. से भी लेखन संबंधी बहुत सुझाव मिले हैं। उनका आत्मीय भाव भी एक प्रेरक तत्त्व बना रहा।
अस्वस्थ होते हुए भी प. पू. रोहिताश्रीजी म. सा. के समुदाय की साध्वीजीश्री चंदनबालाश्री जी म. साहेब ने भी मुझे बहुत बार प्रेरणा एवं प्रुफरीडींग के कार्य में सहायता की है।
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