Book Title: Suktisangrah Author(s): Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 6
________________ ११ सूक्तिसंग्रह ३३. अमूलस्य कुत: स्थितिः ।।२/३३॥ जड़रहित वृक्ष की स्थिति कैसे सम्भव है ? ३४. अम्बामदृष्टपूर्वां च द्रष्टुं को नाम नेच्छति ।।८/४९ ।। ऐसा कौन व्यक्ति है जो पूर्व में न देखी गई माँ को देखने की इच्छा नहीं करता? ३५. अयुक्तं खलु दृष्टं वा श्रुतं वा विस्मयावहम् ।।८/७।। जब मनुष्य अनहोनी/असम्भव जैसी वस्तु को देखता है या सुनता है, तब उसे आश्चर्य होता है। ३६. अलवयं हि पितुर्वाक्यमपत्यैः पथ्यकांक्षिभिः ।।५/१०।। अपना हित चाहनेवाले पुत्र पिता की आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते। ३७. अलं काकसहस्रेभ्य एकैव हि दृषद् भवेत् ।।३/५१ ।। ___हजारों कौओं को उड़ाने के लिए एक ही पत्थर पर्याप्त होता है। ३८. अवश्यं ह्यनुभोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम् ।।१/१०४ ।। पूर्व में बाँधा हुआ शुभाशुभ कर्म अवश्य ही भोगना पड़ता है। ३९. अविचारितरम्यं हिरागान्धानां विचेष्टितम् ।।१/१३।। राग से अन्धे पुरुषों की चेष्टायें बिना विचार के ही अच्छी लगती हैं। ४०. अविवेकिजनानां हि सतां वाक्यमसङ्गतम् ।।९/१७।। अविवेकी लोगों के लिए सज्जनों के वचन असंगत लगते हैं। ४१. अविशेषपरिज्ञाने न हि लोकोऽनुरज्यते ।।१०/५८ ।। छोटे-बड़े सभी को समान मानने पर जनसमुदाय सन्तुष्ट नहीं हो सकता। ४२. अशक्तैः कर्तुमारब्धं सुकरं किं न दुष्करम् ।।७/६३ ।। असमर्थ मनुष्य को सरल काम भी कठिन लगता है। ४३. असतां हि विनम्रत्वं धनुषामिव भीषणम् ।।१०/१४ ।। दुर्जनों की नम्रता धनुष की तरह भयंकर होती है। ४४. असमानकृतावज्ञा पूज्यानां हि सुदुःसहा ।।२/६३ ।। छोटे लोगों द्वारा किया गया अपमान बड़े लोगों को असह्य होता है। ४५. असुमतामसुभ्योऽपि गरीयो हि भृशं धनम् ।।२/७२ ।। 'अ-आ' मनुष्यों को धन अपने प्राणों से भी प्यारा होता है। ४६. अस्वप्नपूर्वं हि जीवानां न हि जातु शुभाशुभम् ।।१/२१ ।। मनुष्यों को स्वप्न देखे बिना शुभ और अशुभ कार्य नहीं होता। ४७. अहो पुण्यस्य वैभवम् ।।२/२२ ।। पुण्य का वैभव आश्चर्यजनक होता है। 'आ' ४८. आत्मदुर्लभमन्येन सुलभं हि विलोचनम् ।।१०/३।। अपने लिए दुष्प्राप्य वस्तु दूसरे को सहजता से मिल जाए तो मनुष्य को आश्चर्य होता है। ४९. आत्मनीने विनात्मनमञ्जसा न हि कश्चन ।।१०/३१।। वास्तव में अपने को छोड़कर अन्य कोई अपना हित करनेवाला नहीं है। ५०. आमोहो देहिनामास्थामस्थानेऽपि हि पातयेत् ।।१०/२४ ।। जबतक मोह है, तबतक वह जीवों को अस्थान में भी प्रवृत्ति कराता है। ५१. आराधनैकसम्पाद्या विद्या न हान्यसाधना ।।७/७४ ।। विद्या, गुरु की आराधना करने से ही प्राप्त होती है; अन्य साधनों से नहीं। ५२. आलोच्यात्मरिकृत्यानांप्राबल्यं हि मतो विधिः।।१०/१८ ।। शत्रुको अपने से अधिक बलवान जानकर ही युद्ध की तैयारी करना चाहिए। ५३. आवश्यकेऽपि बन्धूनां प्रातिकूल्यं हि शल्यकृत् ।।८/५१।। आवश्यक कार्य होने पर इष्टजनों की प्रतिकूलता काँटेकेसमान चुभती है। ५४. आशाब्धि: केन पूर्यते।।२/२०।। आशारूपी समुद्र को कौन भर सकता है? ५५. आश्रयन्तीं श्रियं को वा पादेन भुवि ताडयेत् ।।६/५० ।। अपने आप प्राप्त होती हुई लक्ष्मी को कौन लात मारता है ? ५६. आसमीहितनिष्पत्तेराराध्या: खलु वैरिणः ।।७/२२ ।। अपने अभीष्ट की सिद्धि तक शत्रु भी आराध्य होते हैं।Page Navigation
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