Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 35
________________ ६८ सूक्तिसंग्रह कहीं-कहीं पर पाया जा सकता है। ११३. स्त्री का रूप - मदमात्सर्यमायारागरोषादि - भूषिताः। असत्याशुद्धिकौटिल्यशाळ्यमोठ्यधना: स्त्रियः ।।५८।। स्त्रियों में घमण्ड, मात्सर्य, ईर्ष्या, मायाचारी, द्वेष, मोह, क्रोध, झूठ, अपवित्रता, कुटिलता और मूर्खता आदि दोष स्वभाव से ही होते हैं। ११४. स्त्री के स्वरूप का पुन: कथन - निघृणे निर्दये क्रूरे निर्व्यवस्थे निरङ्कशे। पापे पापनिमित्ते च कलत्रे ते कुतः स्पृहा ।।५९॥ घृणारहित, निर्दय, दुष्ट, व्यवस्थारहित, स्वतन्त्र, पापरूप और पाप की कारणभूत स्त्री से प्रेम और उसका विश्वास भी नहीं रखना चाहिए। लम्ब-९ ११५. शरीर के सौन्दर्य का वास्तविक स्वरूप - मक्षिकापक्षतोऽप्यच्छे मांसाच्छादनचर्मणि। लावण्यं भ्रान्तिरित्येतन्मूढेभ्यो वक्ति वार्धकम् ।।१२।। मांस-मज्जा को ढकनेवाले, मक्खी के पंख से भी पतले और स्वच्छ चमड़े में सुन्दरता मानना मूर्खता है, इस बात को बुढ़ापा सूचित करता है। ११६. अज्ञान का स्पष्ट स्वरूप - प्रतिक्षणविनाशीदमायुः कायमहो जडाः। नैव बुध्यामहे किन्तु कालमेव क्षयात्मकम् ॥१३॥ संसारी जीव की आयु और शरीर क्षण-क्षण में परिवर्तित एवं नष्ट हो रहे हैं, किन्तु आश्चर्य की बात है कि हम अविवेकी लोग आयु और शरीर को क्षण-क्षण में विनष्ट होनेवाले नहीं मानते हैं; अपितु काल को ही विनश्वर मानते हैं। लम्ब-१० लम्ब ११ ११७. सांसारिक सुख-दुःख के मूल कारण - पुण्यपापादते नान्यत्सखेदःखे च कारणम। तन्तवो हि न लूताया: कूपपातनिरोधिनः ।।४८।। जैसे मकड़ी के जाल के तन्तु कुएं में गिरते हुए प्राणी को बचाने में कारण नहीं हो सकते, वैसे ही पुण्य और पापकर्म के बिना सुख और दुःख में अन्य कोई बाह्य वस्तु कारण नहीं हो सकती। ११८. वस्तु का स्वभाव अपरिवर्तनीय - अपकारोपकाराभ्यां सदसन्तौ न भेदिनौ । दग्धं च भाति कल्याणं केनाङ्गारविशुद्धता ।।५२।। जैसे स्वर्ण तपाये जाने पर भी अपनी कान्ति और बहुमूल्यता को नहीं छोड़ता; वैसे ही अपना अनिष्ट किये जाने पर भी सज्जन मनुष्य अपनी सज्जनता नहीं छोड़ता । तथा जैसे कोयला किसी भी प्रकार से और कभी भी अपनी कालिमा नहीं छोड़ सकता; वैसे ही दुर्जन मनुष्य महान उपकार पाकर भी अपनी दुर्जनता नहीं छोड़ सकता। ११९. धन से सजनता और दुर्जनता का सम्बन्ध नहीं - रिक्तारिक्तदशायां च सदसन्तौ न भेदिनी। खाताऽपिहिनदीदत्ते पानीयंन पयोनिधिः ।।५३।। जैसे नदी सूख जाने पर भी उसे खोदने से वह प्यासे पथिक को मीठा जल देती है, वैसे ही सज्जन मनुष्य निर्धन होने पर भी दूसरों की यथाशक्ति मदद ही करते हैं । तथा जैसे अपरिमित खारे जल से भरा हुआ समुद्र प्यासे पथिक की प्यास नहीं बुझा सकता, वैसे ही दुर्जन मनुष्य धनवान होने पर भी दूसरों की कभी सहायता नहीं करते हैं। १२०. सुख-दुःख का परस्पर सम्बन्ध - चिरस्थाय्यपि नष्टं स्याविरुद्धार्थे हि वीक्षिते। सन्निधावपि दीपस्य किं तमिस्र गुहामुखम् ।।६०।।

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