Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 33
________________ ६४ लम्ब७ सूक्तिसंग्रह से कुछ भी लाभ नहीं मिलता। ९७. जिनेन्द्र भगवान से सम्यग्ज्ञानरूपी दीप की कामना - भगवन्दुर्णयध्वान्तैराकीर्णे पथि मे सति । सज्ज्ञानदीपिका भूयात्संसारावधिवर्धिनी ।।३३।। हे भगवन् ! मेरा मार्ग दुर्नयरूपी अन्धकार से व्याप्त है, अत: आपके प्रसाद से मुझे मुक्तिमार्ग दिखलानेवाला सम्यग्ज्ञानरूपी दीपक प्राप्त होवे। ९८. भगवान हमारे मन को शान्ति प्रदान करें - स्वान्तशान्तिं ममैकान्तामनेकान्तैकनायकः। शान्तिनाथो जिनः कुर्यात्संसृतिक्लेशशान्तये ।।३५।। अनेकान्त के अद्वितीय नायक हे शान्तिनाथ भगवन् ! संसार के दुःखों को दूर करने के लिए आप मेरे मन को शान्ति प्रदान करें। लम्ब-७ ९९. षट्कर्मोत्पन्न सुख का स्वरूप - षट्कर्मोपस्थितंस्वास्थ्यं तृष्णाबीजं विनश्वरम् । पापहेतुः परापेक्षि दुरन्तं दुःखमिश्रितम् ।।१२।। असि, मसि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य - इन छह प्रकार के कर्मों से उत्पन्न सुख तृष्णा का कारण, नश्वर, पाप का कारण, दूसरों की अपेक्षा रखनेवाला, अन्त में दुःख देनेवाला और दुःख से मिला हुआ है। १००. आत्मोत्पन्न सुख का स्वरूप - आत्मोत्थमात्मना साध्यमव्याबाधमनुत्तरम्। अनन्तं स्वास्थ्यमानन्दमतृष्णमपवर्गजम्।।१३।। आत्मा के द्वारा प्राप्त करने योग्य, आत्मा से उत्पन्न, बाधारहित, तृष्णारहित, अनन्त, सर्वोत्कृष्ट और मोक्ष में होनेवाला आनन्द ही सच्चा सुख है। १०१. मोक्ष-प्राप्ति का उपाय - तदपि स्वपरज्ञाने याथात्म्यरुचिमात्रके। परित्यागे च पूर्णे स्यात्परमं पदमात्मनः ।।१४।। आत्मा का वह परमपद मोक्ष आत्मा की यथार्थ रुचिरूप सम्यग्दर्शन, भेदविज्ञानरूप सम्यग्ज्ञान और आत्मरमणतारूप सम्यक्चारित्र के परिपूर्ण होने पर प्राप्त होता है। १०२. स्व-पर भेदज्ञान का स्वरूप - स्वमपिज्ञानदृक्सौख्यसामर्थ्यादिगुणात्मकम् । परं पुत्रकलत्रादि विद्धि गात्रमलं परैः ।।१५।। आप अपनी आत्मा को अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य गुणात्मक जानो; पुत्र, मित्र, स्त्री आदि को पर जानो । अधिक कहने से क्या लाभ ? जन्म से ही सदा साथ रहनेवाले शरीर को भी पर वस्तु ही जानो। १०३. देहासक्ति से बारम्बार देह प्राप्ति - एवं भिन्नस्वभावोऽयं देही स्वत्वेन देहकम् । बुध्यते पुनरज्ञानादतो देहेन बध्यते ।।१६।। इसप्रकार पुत्र, मित्र, कलत्र और देह से भिन्न स्वभाव को धारण करनेवाला यह आत्मा अज्ञान के कारण देह को ही आत्मा मानता है; अत: देह मिलने योग्य कर्म को बाँधता है अर्थात् पुन: देह धारण करता है। १०४. अज्ञान ही संसार भ्रमण का कारण - अज्ञानात्कायहेतुः स्यात्कर्माज्ञानमिहात्मनाम् । प्रतीकेस्यात्प्रबन्धोऽयमनादिः सैव संसृतिः ।।१७।। इस संसार में आत्मा को अज्ञान से शरीर के कारणभूत कर्म का बन्ध होता है और फिर शरीर की प्राप्ति होने पर अज्ञान होता है। इसप्रकार अज्ञान और कर्मबन्ध की परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है और इसी परम्परा का नाम संसार है। १०५. निजात्मतत्त्व का स्वीकार ही कर्तव्य -

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