Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 32
________________ सूक्तिसंग्रह यथार्थ रुचि अर्थात् श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान का आत्मा में अटलरूप से धारण करना सम्यक्चारित्र कहलाता है। ८९. रत्नत्रय ही सच्चा मोक्षमार्ग - इति त्रयी तु मार्ग: स्यादपवर्गस्य नापरम् । बाहामन्यत्तपः सर्व तत्त्रयस्यैव साधनम् ।।२१।। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता ही मोक्ष का मार्ग है, दूसरा कोई भी मोक्ष का मार्ग नहीं है तथा अन्य सभी बाह्य तप इन तीनों के ही साधन हैं। ९०. मिथ्यादर्शनादि मोक्ष का उपाय नहीं - तत्त्रयं च न मोक्षार्थमाप्ताभासादिगोचरम् । ध्यातो गरुडबोधेन न हि हन्ति विषं बकः ।।२३।। जिसप्रकार सर्प का विष गरुड़ का ध्यान करने से ही नष्ट होता है, बगुले को गरुड़मानकर उसका ध्यान करने से नहीं; उसीप्रकार सच्चे देव, शास्त्र और तत्त्वों का श्रद्धान, ज्ञान और आचरण ही मोक्ष के साधन हैं; कुदेव, कुशास्त्र और कुतत्त्वों के श्रद्धान, ज्ञान और आचरण स्वरूप मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र नहीं। ९१. सर्वज्ञ कथित तप ही करने योग्य - सर्वदोषविनिमुक्तं सर्वज्ञोपज़मञ्जसा। तप्यध्वं तत्तपो यूयं किं मुधा तुषखण्डनैः ।।२३।। सभी लोगों को हिंसादि दोषों से रहित तथा सर्वज्ञ द्वारा उपदिष्ट तप ही करना चाहिए; क्योंकि चावल रहित भूसे को कूटने केसमान मिथ्यातप करने से क्या लाभ? ९२. स्वयं दुःखी व्यक्ति दूसरों को सुखी नहीं बना सकता - रागादिदोषसंयुक्तः प्राणिनां नैव तारकः । पतन्तः स्वयमन्येषां न हि हस्तावलम्बनम् ।।२५।। जिसप्रकार स्वयं गिरता हुआ व्यक्ति दूसरों का सहारा नहीं हो सकता; उसीप्रकार रागादि से युक्त होने के कारण स्वयं संसार समुद्र में डूबनेवाला व्यक्ति लम्ब६ कभी दूसरों को संसार से पार उतारनेवाला नहीं हो सकता। ९३. सच्चे देव नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करनेवाले नहीं हो सकते - नच क्रीडा विभोस्तस्य बालिशेष्वेव दर्शनात्। अतृप्तश्च भवेत्तृप्तिं क्रीडया कर्तुमुद्यतः ।।२६।। सच्चे देव को क्रीड़ाओं से क्या प्रयोजन ? क्रीड़ाएँ तो बालकों और अज्ञानियों के जीवन में देखने को मिलती हैं। अतृप्त अर्थात् दुःखी जीव ही नाना प्रकार की क्रीड़ाएँ करके सुख प्राप्त करने का प्रयास करते रहते हैं। ९४. सच्चे देव की स्वच्छन्द प्रवृत्ति नहीं हो सकती - स्वैराचास्वभावोऽपि नैश्वरस्यैश्यहानितः। __अप्यस्मदादिभिर्दुष्यं सर्वोत्कर्षवतः कुतः ।।२७।। सच्चे देव के स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति नहीं हो सकती, अन्यथा उनमें प्रभुत्वपने की हानि होगी; क्योंकि जब हम जैसे सामान्य व्यक्ति भी स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति को अच्छा नहीं मानते तो सर्वोत्कर्षशाली ईश्वर के स्वेच्छाचार की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? ९५. ईश्वर जगत का कर्ता नहीं - अदोषश्चेदकृत्यं च कृतिनः किमु कृत्यतः । स्वैराचारविधिदृष्टो मत्त एव न चोत्तमे ।।२८।। यदि ईश्वर सर्व दोषों से रहित निर्दोष है अर्थात् सर्वसुख सम्पन्न और परिपूर्ण है तो उसे करने योग्य कार्य क्या रहा? कुछ भी नहीं। दूसरी बात यह भी है किस्वेच्छाचार की प्रवृत्ति उन्मत्त पुरुषों में ही देखी जाती है, उत्तम विचारवान पुरुषों में नहीं। ९६. संसार की सर्वोत्तम सम्पत्ति - बोधिलाभात्परा पुंसां भूति:का वा जगत्त्रये। किम्पाकफलसङ्काशैः किं परैरुदयच्छलैः ।।३१।। मनुष्यों के लिए तीनों लोकों में रत्नत्रय की प्राप्ति से बढ़कर और क्या सम्पत्ति है? क्योंकि फलकाल में विषवृक्ष के फल सदृश अत्यन्त दु:खदायकधन, पुत्रादिक

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