Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 37
________________ 72 लम्ब 11 सूक्तिसंग्रह हे आत्मन् ! खेद है कि तुम जिन पुद्गलादि वस्तुओं को अनेक बार भोगकर उच्छिष्ट बना चुके हो; उन्हीं को बार-बार भोगने के लिए उत्कण्ठित हो रहे हो; किन्तु जिस अनन्त आनन्ददायक मोक्षसुख का तुमने एक बार भी स्वाद नहीं लिया, उस महान सुख की इच्छा भी नहीं करते हो। 129. इच्छा का अभाव ही सुख - परिणामविशुद्धिश्च बाहो स्यान्निःस्पहस्य ते। नि:स्पृहत्वंतुसौख्यं तद्बाहो मुहासि किंमुधा / / 67 / / हे आत्मन् ! बाह्य पदार्थों में इच्छा न करने से, ममत्व न करने से तुम्हारे परिणामों में निर्मलता आयेगी तथा इच्छा से रहित होना ही सुख है; इसलिए तुम बाह्य पदार्थों में व्यर्थ ही मोह क्यों करते हो? 130. आत्मज्ञान का महत्त्व - सत्यज्ञाने पुनश्चात्मन्पूर्ववत्संसरिष्यसि / कारणे ज़म्भमाणेऽपि न हि कार्यपरिक्षयः / / 72 // हे आत्मन् ! आत्मज्ञान न होने से तुम इस दुःखमय संसार में हमेशा की तरह परिभ्रमण करते ही रहोगे; क्योंकि कारण के विद्यमान रहने पर कार्य का विनाश नहीं होता। 131. धर्मबुद्धि का महत्त्व - व्यर्थः स समवायोऽपि तवात्मन्धर्मधीन चेत् / कणिशोद्गमवैधुर्ये केदारादिगुणेन किम् / / 75 / / हे आत्मन् ! कदाचित भव्यत्व आदि दुर्लभ पाँचों समवायों की एकसाथ प्राप्ति भी हो जाए; परन्तु यदि तुम्हारी यथार्थ धर्म में रुचि नहीं है तो उन पाँचों का एकसाथ पाना भी व्यर्थ है / जैसे खेत वगैरह अच्छे भी रहें; पर उनमें बीज बोने पर अनाज की उत्पत्ति न हो तो उनकी अच्छाई से भी क्या लाभ ? 132. तदात्मन्दुर्लभं गात्रं धर्मार्थं मूढ कल्प्यताम् / भस्मने दहतो रत्नं मूढः कः स्यात्परो जनः / / 76 / / अरे मूर्ख ! इस दुर्लभ शरीर को धर्म की प्राप्ति के लिए लगाना चाहिए; क्योंकि जिसप्रकार राख की प्राप्ति के लिए रत्न को जलाना मूर्खता है; उसीप्रकार

Loading...

Page Navigation
1 ... 35 36 37