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सूक्तिसंग्रह कालायसं हि कल्याणं कल्पते रसयोगतः ।।५।। सज्जन अर्थात् श्रेष्ठ महापुरुषों के निवास से भूमि यदि पूजनीय तीर्थक्षेत्र बन जाती है तो इसमें कुछ आश्चर्य नहीं है; क्योंकि काला लोहा भी रसायन के सम्बन्ध से सोना बन जाता है। ८१. संगति का प्रभाव -
सदसत्सङ्गमादेव सदसत्त्वे नृणामपि । तस्मात्सत्सङ्गताः सन्तु सन्तो दुर्जनदूरगाः ॥६॥ सज्जनों और दुर्जनों की संगति से ही मनुष्य को सज्जनता और दुर्जनता की प्राप्ति होती है; अत: सज्जन पुरुषों को दुर्जनों से दूर रहना चाहिए तथा सज्जन पुरुषों की संगति करना चाहिए। ८२. सच्चे तप का स्वरूप -
तत्तपो यत्र जन्तूनां सन्तापो नैव जातुचित् ।
तच्चारम्भनिर्वृत्तौ स्यान्न ह्यारम्भो विहिंसनः ।।१४।। जिसमें किसी भी जीव को किंचित मात्र भी सन्ताप/क्लेश/दुःख नहीं होता है, वही सच्चा तप है। वह तप आरम्भ के सर्वथा छूट जाने पर ही होता है; क्योंकि कोई भी आरम्भ हिंसा से रहित नहीं होता। ८३. मुनि-अवस्था में ही आरम्भ का अभाव -
आरम्भविनिवृत्तिश्च निर्ग्रन्थेष्वेव जायते। न हि कार्यपराचीनैर्मृग्यते भुवि कारणम् ।।१५।।
आरम्भ का अभाव परिग्रहरहित मुनियों में ही होता है; क्योंकि जिन्हें संसार में रहते हुए भी सांसारिक कार्यों से कोई प्रयोजन नहीं है, वे उनके कारणों की खोज नहीं करते। ८४. सम्यक् तप निर्ग्रन्थ अवस्था में ही -
नैर्ग्रन्थ्यं हि तपोऽन्यत्तु संसारस्यैव साधनम् ।
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मुमुक्षूणां हि कायोऽपि हेय: किमपरं पुनः ।।१६।। बाह्य और अन्तरंग परिग्रह से रहित मुनिपना ही सच्चा तप है। इसे छोड़कर अन्य तप संसार के ही कारण हैं। वास्तव में तो मोक्ष चाहनेवाले परुषों को शरीर का ममत्व भी छोड़ने योग्य है, फिर अन्य परिग्रह का तो कहना ही क्या ? ८५. परिग्रह ही संसार -
ग्रन्थानुबन्धी संसारस्तेनैव न परिक्षयी। रक्तेन दूषितं वस्त्रं न हि रक्तेन शुध्यति ।।१७।। जिसप्रकार खून से मलिन हुआ वस्त्र खून से ही साफ नहीं हो सकता; उसीप्रकार राग-द्वेषादि परिग्रहों से बढ़नेवाला संसार इन्हीं परिग्रहों को ग्रहण करने से कैसे नष्ट हो सकता है? ८६. तत्त्वज्ञान रहित नग्नता फलदाता नहीं -
तत्त्वज्ञानविहीनानां नैर्ग्रन्थ्यमपि निष्फलम। न हि स्थाल्यादिभिःसाध्यमन्नमन्यैरतण्डुलैः ।।१८।। जैसे चावलरूप उपादान कारण बिना मात्र बटलोई, जल, अग्नि, रसोइया आदि निमित्त कारणों से साध्यभूत भात/पका चावल प्राप्त नहीं हो सकता; वैसे ही यथार्थ तत्त्वज्ञान से रहित मात्र नग्नता निष्फल है, मोक्ष-प्रदाता नहीं है। ८७. सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान का यथार्थ स्वरूप -
तत्त्वज्ञानं च जीवादितत्त्वयाथात्म्यनिश्चयः।
अन्यथाधीस्तुलोकेऽस्मिन् मिथ्याज्ञानंतु कथ्यते ।।१९।। इस लोक में जीवादि सात तत्त्वों का यथार्थ निर्णय होना सम्यग्ज्ञान है और इन्हीं सात तत्त्वों का अयथार्थ निर्णय होना मिथ्याज्ञान है। ८८. सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का स्वरूप -
आप्तागम - पदार्थाख्यतत्त्ववेदनतद्रुची। वृत्तचतवयस्यात्मन्यस्खलद्वृत्तिधारणम् ।।२०।। आप्त, आगम और सत्यार्थ पदार्थों का यथार्थ ज्ञान होना सम्यग्ज्ञान है, इनकी