Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 24
________________ सूक्तिसंग्रह खेद की बात है कि मूर्ख मनुष्य मल-मूत्रादि से भरे हुए स्त्री के गुप्तांग में विलासकर विष्टा खानेवाले सूकर के समान अपने को सुखी मानते हैं। २३. स्त्री सेवन से उत्पन्न सुख अविचारितरम्य - किं कीदृशं कियत्क्वेति विचारे सति दुःसहम् । अविचारितरम्यं हि रामासम्पर्कजं सुखम् ।।७४।। स्त्री सेवन से जो सुख होता है; वह तब तक ही सुखरूप लगता है, जब तक कि उसके बारे में यह सुख क्या है, कैसा है, कितना है और कहाँ है ?' - ऐसा विचार नहीं किया जाता, किन्तु ऐसा विचार करने पर वही सुख असह्य हो जाता है अर्थात् स्त्री विषयक सुख बिना विचार के ही अच्छा लगता है। २४. निजात्मा का ज्ञान ही कर्म नष्ट करने का उपाय - कोऽहं कीदमाण: क्वत्य: किंप्राप्यः किं निमित्तकः। इत्यूहः प्रत्यहं नो चेदस्थाने हि मतिर्भवेत् ।।७८।। मैं कौन हूँ ? मुझमें कैसे गुण हैं ? मैं किस गति से आया हूँ ? इस भव में मुझे क्या प्राप्त करना है ? और मेरा साध्य क्या है ? - इसप्रकार के विचार प्रतिदिन न हों तो बुद्धि अयोग्य कार्यों में प्रवृत्त होती है। २५. ज्ञानी का स्वरूप सम्बोधन - किं नु कर्तुं त्वयारब्धं किं नु वा क्रियतेऽधुना। आत्मन्नारब्धमुत्सृज्य हन्त बाह्येन मुह्यसि।।८।। हे आत्मन् ! तूने क्या करना प्रारम्भ किया था और अब तू क्या कर रहा है ? महान खेद की बात है कि प्रारम्भ किए हुए आत्मकल्याणरूप मोक्षमार्ग को छोड़कर बाह्य मान-सम्मान और पंचेन्द्रिय के विषयों में मोह कर रहा है। २६. पर पदार्थों में इष्टानिष्ट की मिथ्याकल्पना - इदमिष्टमनिष्टं वेत्यात्मन्सङ्कल्पयन्मुधा। किंनुमोमुहासे बाहो स्वस्वान्तं स्ववशी कुरु ।।८।। लम्ब२ हे आत्मन् ! अमुक पदार्थ इष्ट/सुखदायक है और अमुक पदार्थ अनिष्ट/ दु:खदायक है - इसप्रकार कल्पना करता हुआ तू बाह्य परपदार्थों में व्यर्थ क्यों मुग्ध हो रहा है? अपने मन को अपने आधीन कर । २७. अशान्त मन अहितकारी - लोकद्वयाहितोत्पादि हन्त स्वान्तमशान्तिमत् । न द्वेक्षि द्वेक्षि ते मौढ्यादन्यं सङ्कल्प्य विद्विषम् ।।८।। हे आत्मन् ! बड़े खेद की बात है कि तुम इहलोक और परलोक में दु:ख उत्पन्न करनेवाले अशान्तिमय अपने मन से द्वेष नहीं करते; अपितु मूर्खता के कारण दूसरों को शत्रु/दु:खदायक मानकर उनसे ही द्वेष करते हो। २८. अपने दोष देखना ही मुक्ति का उपाय - अन्यदीयमिवात्मीयमपि दोषं प्रपश्यता। कः समः खलु मुक्तोऽयं युक्त: कायेन चेदपि ।।८३।। दूसरों के दोषों के समान अपने दोषों को देखनेवाले महापुरुष के समान दूसरा कौन है ? अरे, वास्तव में विचार किया जाए तो वह मनुष्य तो शरीर सहित होने पर भी सिद्ध के समान है! लम्ब-२ २९. ज्ञानदान ही सर्वोत्तम दान - आत्मकृत्यमकृत्यं च सफलं प्रीतये नृणाम् । किं पुनःश्लाघ्यभूतंतत्किंविद्यास्थापनात्परम्।।४।। अपने द्वारा किया गया खोटा कार्य भी सफल होने पर मनुष्यों को अच्छा लगता है। उस पर भी यदि वह कार्य अच्छा हो तो उसकी प्रसन्नता का कहना ही क्या ? और ज्ञानदान से उत्कृष्ट कार्य और दूसरा क्या हो सकता है ? अर्थात् ज्ञानदान ही सर्वोत्कृष्ट कार्य है। ३०. प्रतिकूलता का कारण -

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