Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 16
________________ ३० खेद है कि मूर्ख पुरुषों की क्रोधाग्नि अस्थान में भी बढ़ती है ! 'य' सूक्तिसंग्रह २६०. यदशोकः प्रतिक्रिया ||२/६८ ॥ शोक नहीं करना ही शोक का प्रतिकार है। २६१. यदि रत्नेऽपि मालिन्यं न हि तत्कृच्छशोधनम् ।।११/२० ।। रत्न पर आई हुई मलिनता सरलता से दूर करने योग्य होती है। २६२. याञ्चायां फलमूकायां न हि जीवन्ति मानिन: ।।९ / २६ ।। याचना निष्फल हो जाने पर अभिमानी लोग जीवित नहीं रहते। २६३. योग्यकालप्रतीक्षा हि प्रेक्षापूर्वविधायिनः ।। ९ / २२ ।। विचारपूर्वक कार्य करनेवाले मनुष्य उचित समय की प्रतीक्षा करनेवाले होते हैं। २६४. योग्यायोग्यविचारोऽयं रागान्धानां कुतो भवेत् ।।४ / ३८ ।। रागान्ध मनुष्यों को उचित-अनुचित का विचार कहाँ से हो सकता है ? 'र' २६५. रक्तेन दूषितं वस्त्रं नहि रक्तेन शुध्यति ।।६/१७ ।। खून से मलिन हुआ वस्त्र खून से ही धोने पर निर्मल नहीं होता। २६६. रागद्वेषादि तेनैव बलिष्ठेन हि बाध्यते ।।८/५०॥ अति बलवान रागादि से ही सामान्य राग-द्वेष आदि बाधित होते हैं। २६७. रागान्धानां वसन्तो हि बन्धुरग्नरिवानिलः ॥४ / २ ॥ राग से अन्धे पुरुषों के लिए वसन्त ऋतु अग्नि को प्रज्ज्वलित करने में पवन की तरह मित्र है । २६८. रागान्धे हि न जागर्ति याञ्चादैन्यवितर्कणम् ||९ / २८ ।। प्रेम से अन्धे प्राणी में दीनता का विचार भी नहीं रहता । २६९. राजवन्ती सती भूमिः कुतो वा न सुखायते ।।१० / ५४ ।। 'लव' उत्तम राजा से युक्त भूमि सुख कैसे नहीं देती ? २७०. राज्यभ्रष्टोऽपि तुष्टः स्याल्लब्धप्राणो हि जन्तुक: ॥ ३ / २० ॥ राज्य से भ्रष्ट हो जाने पर भी यदि प्राणों की रक्षा हो जाती है तो मनुष्य आनन्दित होता है। ३१ २७१. रोचते न हि शौण्डाय परपिण्डादिदीनता || ३ | ४ || उद्यमशील मनुष्य के लिए दूसरे से उपार्जित धन द्वारा निर्वाह से उत्पन्न दीनता अच्छी नहीं लगती। 'ल' २७२. लवणाब्धिगतं हि स्यान्नादेयं विफलं जलम् ||३ / १० ।। नदी का मीठा जल भी लवणसमुद्र में जाकर बेकार हो जाता है। २७३. लाभं लाभमभीच्छा स्यान्न हि तृप्तिः कदाचन ||८/५५ ।। एक वस्तु की प्राप्ति हो जाने पर दूसरी वस्तु प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न हो जाती है; सन्तोष कभी भी नहीं होता । २७४. लोकद्वयहितध्वंसोर्न हि तृष्णारुषोर्भिदा ||३/२२॥ लोकद्वय सम्बन्धी हित के नाशक तृष्णा और क्रोध में कुछ भी अन्तर नहीं है। २७५. लोकमालोकसात्कुर्वन्न हि विस्मयते रविः ||६ / ३७ ।। संसार को प्रकाशमय करता हुआ सूर्य गर्वान्वित नहीं होता । २७६. लोको हाभिनवप्रियः || ४ | ३ || लोग नई वस्तु से प्रेम करनेवाले होते हैं। २७७. वक्त्रं वक्ति हि मानसम् ।।१/२७ ।। I मुख की आकृति मन के भाव को प्रकट कर देती है। २७८. वचनीयाद्धि भीरुत्वं महतां महनीयता ||७/५३ ।। निन्दाजनक कार्यों में भीरुता होना महापुरुषों की महानता है। २७९. वत्सलेषु च मोहः स्याद्वात्सल्यं हि मनोहरम् ||८/२ ।।

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