Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 14
________________ २६ २७ दुर्लभता से प्राप्त हुई वस्तु के प्रति विशेष प्रेम हुआ करता है। २२८. बुद्धिः कर्मानुसारिणी ॥१/१९।। बुद्धि कर्म के अनुसार चलती है। सूक्तिसंग्रह २१७. प्राणवत्प्रीतये पुत्रा मृतोत्पन्नास्तु किं पुनः ।।१/९९ ।। पुत्र तो प्राणों के समान प्रिय होते हैं, फिर जो मरकर पुन: जीवित हो जाए उसका तो कहना ही क्या? २१८. प्राणा: पाणिगृहीतीनां प्राणनाथो हि नापरम् ।।७/३।। विवाहिता स्त्रियों के प्राण उनके पति ही होते हैं; और कोई नहीं। २१९. प्राणेष्वपि प्रमाणं यत्तद्धि मित्रमितीष्यते ।।३/३७ ।। जो प्राणों से भी अधिक प्रामाणिक हो, वही सच्चा मित्र है। २२०. प्रीतये हि सतां लोके स्वोदयाच्च परोदयः ।।६/३० ।। सज्जनों को अपनी उन्नति से भी दूसरों की उन्नति अधिक आनन्ददायी होती है। २२१. प्रेक्षावन्तो वितन्वन्ति न ह्युपेक्षामपेक्षिते ।।४/४२ ।। बुद्धिमान पुरुष अपेक्षित वस्तु की उपेक्षा नहीं करते। २२२. फलमेव हि यच्छन्ति पनसा इव सज्जनाः ।।१०/४२।। सज्जन मनुष्य कटहल' के वृक्ष के समान फल को ही देते हैं। २२९. भवितव्यानुकूलं हि सकलं कर्म देहिनाम् ।।९/२० ।। प्राणियों के समस्त कार्य होनहार के अनुसार होते हैं। २३०. भव्यो वा स्यान्न वा श्रोता पारायं हि सतां मनः ।।६/१० ।। श्रोता भव्य हो अथवा न हो, सज्जनों की भावना सबका उपकार करने की ही होती है। २३१. भस्मने दहतो रत्नं मूढः कः स्यात्परो जनः ।।११/७६ ।। राख के लिए रत्न को जलानेवाले व्यक्ति से बढ़कर मूर्ख दूसरा कौन है ? २३२. भस्मने रत्नहारोऽयं पण्डितैर्न हि दाते ।।११/१८।। पण्डित लोग राख के लिए रत्नहार को नहीं जलाते। २३३. भागधेयविधेया हि प्राणिनां तु प्रवृत्तयः ।।७/७ ।। प्राणियों की प्रवृत्तियाँ भवितव्यानुसार ही होती हैं। २३४. भाग्ये जाग्रति का व्यथा ।।१/१०९।। भाग्योदय होने पर कौन-सा दु:ख रहता है ? २३५. भानुः किं न तमोहरः ।।१०/२६।। क्या सूर्य अन्धकार को नष्ट नहीं कर पाता? २३६. भानुर्लोकं तपन्कुर्याद्विकासश्रियमम्बुजे ।।५/२५ ।। संसार को सन्तप्त करनेवाला सूर्य कमल की कलियों को खिलाता है। २३७. भाव्यधीनं हि मानसम् ।।५/२९ ।। मन भवितव्यानुसार होता है। २३८. भ्रातुर्विलोकनं प्रीत्यै विप्रयुक्तस्य किं पुनः ।।८/१०।। भाई को देखना ही प्रसन्नता का कारण है, फिर बिछुड़े हुए भाई से मिलने पर तो कहना ही क्या? २२३. बकायन्ते हि जिष्णवः ।।१०/१६।। विजय पाने के इच्छुक लोग बगुले के समान आचरण करते हैं। २२४. बन्धोर्बन्धौ च बन्धो हि बन्धुता चेदवञ्चिता ।।८/२६ ।। यदि निष्कपट बन्धुत्व का भाव हो तो सम्बन्धी के सम्बन्धियों में भी प्रेम हो जाता है। २२५. बहुद्वारा हि जीवानां पराराधनदीनता ।।९/४।। प्राणियों के दूसरों की सेवा से प्रकट होनेवाली दीनता बहुत प्रकार की होती है। २२६. बहुयत्नोपलब्धस्य प्रच्यवो हि दुरुत्सहः ।।७/४ ।। बहुत प्रयत्नपूर्वक प्राप्त हुई वस्तु का वियोग असह्य होता है। २२७. बहुयत्नोपलब्धे हि प्रेमबन्धो विशिष्यते ।।१०/१।।

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