Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ २२ २३ 'न-प' बिना कारण ही दूसरों की रक्षा करना सज्जन पुरुषों का स्वाभाविक गुण १८४. नीचत्वं नाम किं नु स्यादस्ति चेद् गुणरागिता ।।५/५।। यदि दूसरों के गुणों में प्रीति हो तो नीचता कैसे टिके ? १८५. नैसर्गिकं हि नारीणां चेतः सम्मोहि चेष्टितम् ।।८/४।। स्त्रियों की चेष्टाएँ स्वभाव से ही चित्त को मोहित करनेवाली होती हैं। १८६. नो चेद्विवेकनीरौघो रागाग्नि: केन शाम्यति ।।४/३७ ।। यदि विवेकरूपी जल-समूह न हो तो रागरूपी अग्नि कैसे शान्त होगी? 'प' सूक्तिसंग्रह १७२. न हास्थानेऽपिरुट् सताम् ।।१०/५५ ।। सज्जनों का क्रोध अनुचित स्थान में नहीं होता। १७३. नादाने किन्तु दाने हि सतां तुष्यति मानसम् ।।७/३० ।। सज्जन पुरुष दान देने में प्रसन्न होते हैं, लेने में नहीं। १७४. निरङ्कशं हि जीवानामैहिकोपायचिन्तनम् ।।३/३ ।। मनुष्यों के इस लोक सम्बन्धी आजीविका के उपाय का चिन्तन निराबाध ही हो जाता है। १७५. निर्गमे चाप्रवेशे च धाराबन्धे कुतो जलम् ।।११/६४ ।। सरोवर में से संचित जल के निकल जाने पर और नवीन जल के नहीं आने पर उसमें पानी कैसे रह सकता है ? १७६. निर्वाणपथपान्थानां पाथेयं तद्धि किं परैः ।।४/८।। अधिक क्या कहें! णमोकार मन्त्र मुक्तिपथ के पथिकों के लिए कलेवा है। १७७. निर्विवादविधि! चेन्नैपुण्यं नाम किं भवेत् ।।४/२२ ।। यदि निर्विवाद युक्ति न हो तो निपुणता किस बात की? १७८. निर्व्याजं सानुकम्पा हि सार्वा: सर्वेषु जन्तुषु ।।६/८।। सर्वहितैषी सज्जन पुरुष समस्त प्राणियों पर निष्कपट दया करते हैं। १७९. निश्चलादविसंवादाद्वस्तुनो हि विनिश्चयः ॥१/९४ ।। निश्चल और विवादरहित वचनों से वस्तु का निश्चय होता है। १८०, निष्प्रत्यूहा हि सामग्री नियतं कार्यकारिणी ।।२/५८ ।। बाधारहित कारण-सामग्री नियम से कार्य को पूरा करनेवाली होती है। १८१. निसर्गादिङ्गितज्ञानमङ्गनासु हि जायते ।।७/४४ ।। शरीर की चेष्टा से मन के विचारों को जानने का इंगित/संकेत ज्ञान स्त्रियों में स्वभाव से ही होता है। १८२. निःस्पृहत्वं तु सौख्यम् ।।११/६७।। इच्छा का अभाव ही सुख है। १८३. निर्हेतुकान्यरक्षा हि सतां नैसर्गिको गुणः ।।५/४३ ।। १८७. पतन्तः स्वयमन्येषां न हि हस्तावलम्बनम् ।।६/२५।। स्वयं गिरते हुए लोग दूसरों का सहारा नहीं हो सकते। १८८. पन्नगेन पय: पीतं विषस्यैव हि वर्धनम् ।।५/६ ।। सर्प को पिलाया गया दूध विष की ही वृद्धि करता है। १८९. पम्फुलीति हि निर्वेगो भव्यानां कालपाकतः ।।२/९।। काल पक जाने पर भव्यजीवों को विशेषरूप से वैराग्य प्रकट होता है। १९०. पयो हास्यगतं शक्यं पाननिष्ठीवनद्वये ।।१/५४ ।। मुँह में रखे हुए दूध अथवा जल की परिणति थूकने या पीने के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं हो सकती। १९१. परस्परातिशायी हि मोहः पञ्चेन्द्रियोद्भवः ।।९/२३ ।। पाँचो इन्द्रियों के निमित्त से होनेवाला मोह एक-दूसरे की अपेक्षा अधिक होता है। १९२. पराभवो न हि सोढव्योऽशक्तैः शक्तैस्तु किं पुनः ।।८/२९ ।। अपने तिरस्कार को असमर्थ जन भी सहन नहीं कर पाते तो फिर समर्थ पुरुष कैसे सहन करेंगे? १९३. पाके हि पुण्यपापानां भवेद्बाह्यं च कारणम् ।।११/१४ ।। पाप और पुण्य के उदय आने में कोई न कोई बाह्य निमित्त कारण अवश्य

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