Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 13
________________ २४ पूज्य पुरुषों की पूजा का उल्लंघन होने पर पूज्यपना कैसे कायम रह सकता है सूक्तिसंग्रह मिल जाता है। १९४. पाण्डित्यं हि पदार्थानां गुणदोषविनिश्चयः ।।४/२०।। पदार्थों के गुण और दोषों का निर्णय करना ही पाण्डित्य है। १९५. पाणौ कृतेन दीपेन किं कूपे पततां फलम् ।।२/४५ ।। हाथ में दीपक होने पर भी कुएँ में गिरनेवाले व्यक्ति को दीपक से क्या लाभ? १९६. पात्रतां नीतमात्मानं स्वयं यान्ति हि सम्पदः ।।५/४८।। सम्पत्ति स्वयं ही योग्य पुरुषों के पास जाती है। १९७. पापात् बिभ्यतु पण्डिताः ।।१/८७।। विद्वानों को पाप से डरना चाहिए। १९८. पावके न हि पात: स्यादातपक्लेशशान्तये ।।१/३० ।। गर्मी से होनेवाले दुःख को दूर करने के लिए अग्नि में कूदना उपाय नहीं है। १९९. पावनानि हि जायन्ते स्थानान्यपि सदाश्रयात् ।।६/४ ।। सत्पुरुषों के आश्रय से स्थान भी पवित्र हो जाते हैं। २००, पित्तज्वरवत: क्षीरं तिक्तमेव हि भासते ।।१/५१ ।। पित्तज्वरवाले मनुष्य को मीठा दूध कड़वा ही लगता है। २०१. पीडायां तु भृशं जीवा अपेक्षन्ते हि रक्षकान् ।।८/२७ ।। कष्ट/पीड़ा होने पर ही लोग रक्षकों की अपेक्षा करते हैं। २०२. पीडा ह्यभिनवा नृणां प्रायो वैराग्यकारणम् ।।१/७१ ।। नई पीड़ा प्राय: मनुष्यों के वैराग्य का कारण बनती है। २०३. पुत्रमात्र मुदे पित्रोविद्यापात्रं तु किं पुनः ।।७/७८ ।। माता-पिता को पुत्र ही हर्ष का कारण होता है, फिर विद्वान पुत्र का तो कहना ही क्या? २०४. पुण्ये किंवा दुरासदम् ।।१/८९ ।। पुण्योदय होने पर क्या दुर्लभ है ? २०५. पूज्यत्वं नाम किंनुस्यात्पूज्यपूजाव्यतिक्रमे ।।५/४५।। २०६. प्रकृत्या स्यादकृत्ये धी१:शिक्षायां तु किं पुनः ॥३/५०॥ बुद्धि स्वभाव से ही खोटे कार्यों में प्रवृत्त होती है; फिर खोटी शिक्षा मिलने पर तो उसका कहना ही क्या? २०७. प्रजानां जन्मवर्ज हि सर्वत्र पितरौ नृपाः ।।११/४ ।। ___जन्म देने के अलावा सर्वत्र राजा ही प्रजा के माता-पिता हैं। २०८. प्रतारणविधौ स्त्रीणां बहुद्वारा हि दुर्मतिः ।।७/४५ ।। स्त्रियों की खोटी बुद्धि दूसरों को ठगने में अनेक प्रकार से चलती है। २०९. प्रतिकर्तुं कथं नेच्छेदुपकर्तुः सचेतनः ।।४/१४ ।। सचेतन प्राणी उपकार करनेवाले के प्रति प्रत्युपकार करने की भावना क्यों नहीं रखेगा? २१०. प्रतिहन्तुं न हि प्राज्ञैः प्रारब्धं पार्यते परैः ।।६/३ ।। बुद्धिमानों द्वारा प्रारम्भ किया गया कार्य दूसरों द्वारा रोका जाना सम्भव नहीं है। २११. प्रत्यक्षेच परोक्षेच सन्तो हि समवृत्तिकाः ।।७/३२ ।। सज्जन पुरुष सामने और पीछे समान व्यवहार करते हैं। २१२. प्रदीपैर्दीपिते देशे न हास्ति तमसो गतिः ।।१/३१ ।। दीपकों से प्रकाशित स्थान पर अन्धकार का आगमन ही नहीं होता। २१३. प्रभूणां प्राभवं नाम प्रणतेष्वेकरूपता।।६/३९ ।। विनयशील जनों के प्रति समान व्यवहार करना महापुरुषों की महानता है। २१४. प्रयत्नेन हि लब्धं स्यात्प्राय:स्नेहस्य कारणम् ।।५/१।। परिश्रम से प्राप्त वस्तु प्राय: स्नेह का कारण होती है। २१५. प्राणप्रदायिनामन्या नास्ति प्रत्युपक्रिया ।।५/४४।। प्राण रक्षा करनेवालों का दूसरा कोई प्रत्युपकार नहीं होता। २१६. प्राणप्रयाणवेलायां न हि लोके प्रतिक्रिया ।।२/५७।। संसार में प्राण निकलने के समय में मृत्यु रोकने का कोई उपाय नहीं होता।

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