Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

View full book text
Previous | Next

Page 17
________________ ३२ सूक्तिसंग्रह स्नेहीजनों पर प्रेमभाव हो ही जाता है, क्योंकि प्रेमभाव मनोहर होता है। २८०. वत्सलैः सह संवासे वत्सरो हि क्षणायते ||८/३ ॥ प्रियजनों के साथ रहने पर वर्ष भी क्षण के समान लगता है। २८१. वपुर्वक्ति हि माहात्म्यं दौरात्म्यमपि तद्विदाम् ||५ / ४७ ॥ शरीर के लक्षणों को जाननेवाले शरीर को देखकर ही मनुष्य की सज्जनता और दुर्जनता का निर्णय कर लेते हैं। २८२. वपुर्वक्ति हि सुव्यक्तमनुभावमनक्षरम् ।।७/७३ ।। शब्दोच्चारण के बिना ही शरीर की बनावट मनुष्य के प्रभाव को बताती है। २८३. वशिनां हि मनोवृत्ति: स्थान एव हि जायते ।।८/६६ ॥ जितेन्द्रिय पुरुषों के मन की प्रवृत्ति उचित स्थान में ही होती है। २८४. व्यवस्था हि सतां शैली साहाय्येऽप्यत्र किं पुनः ।। ११/८१ ।। महापुरुषों की शैली व्यवस्थित होती है, इसमें सहायता मिल जाए तो फिर कहना ही क्या ? २८५. वाञ्छितार्थेऽपि कातर्यं वशिनां न हि दृश्यते ।।८/७२ ।। जितेन्द्रिय मनुष्य इच्छित पदार्थ को पाने में भी अधीर नहीं होते। २८६. वाञ्छिता यदि वाञ्छेयुः ससारैव हि संसृतिः ||९ / १ ॥ जिनको हम चाहते हैं, यदि वे भी हमें चाहें तो संसार भी सारभूत भासित होने लगता है। २८७. वार्धिमेव धनार्थी किं गाहते पार्थिवानपि ।।३ / ११ ।। धन का इच्छुक मनुष्य समुद्र की ही यात्रा करता है क्या ? अरे वह तो द्वीपद्वीपान्तरों और राजा-महाराजाओं को भी प्राप्त करता है। २८८. विक्रिया हि विमूढानां सम्पदापल्लवादपि ||५ / ३३ || मूर्खों को ही अत्यल्प सम्पत्ति और विपत्ति में हर्ष-विषाद हुआ करते हैं। २८९. विचाररूढकृत्यानां व्यभिचारः कुतो भवेत् ।।९ / ३१ ।। विचारपूर्वक कार्य करनेवालों के कार्य में हानि कैसे हो सकती है ? 'व' २९०. विचार्यैवेतरैः कार्यं कार्यं स्यात्कार्यवेदिभिः ||८/६० ।। कार्यकुशल मनुष्य को दूसरों के साथ विचार करके ही कार्य करना चाहिए। २९१. विधित्सिते ह्यनुत्पन्ने विरमन्ति न पण्डिताः || १०/६ ॥ जबतक इच्छित कार्य नहीं होता, तबतक बुद्धिमान पुरुष विराम नहीं लेते। २९२. विधिर्घटयतीष्टार्थे: स्वयमेव हि देहिनः ||७ / ७१ ।। कर्म इष्ट पदार्थों का प्राणियों से सम्बन्ध स्वयमेव करा देता है। २९३. विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।२/२६ ।। विद्वान सब जगह पूजा जाता है। २९४. विद्वेषः पक्षपातश्च प्रतिपात्रं च भिद्यते ||८/२४ || प्रत्येक वस्तु सम्बन्धी राग और द्वेषभाव भिन्न-भिन्न होता है। २९५. विनयः खलु विद्यानां दोग्ध्री सुरभिरञ्जसा ||७ / ७७ ।। गुरु की सच्ची विनय विद्याओं को देनेवाली कामधेनु है । २९६. विपच्च सम्पदे हि स्याद्भाग्यं यदि पचेलिमम् ||८/१९ ।। यदि पुण्य का उदय हो तो विपत्ति भी सम्पत्ति का कारण बन जाती है। २९७. विपदोऽपि हि तद्भीतिर्मूढानां हन्त बाधिका ||४/२९ ।। मूर्ख मनुष्यों को विपत्ति का भय विपत्ति से भी अधिक दुःखदायक होता है। २९८. विपदो वीतपुण्यानां तिष्ठन्त्येव हि पृष्ठतः । । १० / ३४ ।। पुण्यहीन मनुष्यों के पीछे विपत्तियाँ लगी ही रहती हैं। २९९. विपाके हि सतां वाक्यं विश्वसन्त्यविवेकिनः ।।१ / ३५ ।। अविवेकी व्यक्ति संकट आने पर सज्जनों की बात का विश्वास करते हैं। ३००. विवेकभूषितानां हि भूषा दोषाय कल्पते ।।७/५ ।। विवेक से शोभायमान विवेकीजनों को आभूषण दोषरूप ही प्रतीत होते हैं। ३०१. विशेते हि विशेषज्ञो विशेषाकारवीक्षणात् ॥१८ / ३४ ।। विशेषज्ञ पुरुष विशेषताओं को देखकर सन्देह करने लगते हैं। ३०२. विशेषज्ञा हि बुध्यन्ते सदसन्तौ कुतश्चन ||९ / २४ ॥ बुद्धिमान किसी न किसी कारण से सत्य-असत्य को जान लेते हैं। ३३

Loading...

Page Navigation
1 ... 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37