Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 19
________________ ३३७, सामग्रीविकलं कार्यं न हि लोके विलोकितम् ।।८/५६ ।। संसार में आवश्यक सामग्री के बिना कार्य नहीं देखा जाता। ३३८. सुकृतीनामहो वाञ्छा सफलैव हि जायते ।।५/३६ ।। पुण्यशाली जीवों की इच्छा सफल ही होती है। ३३९. सुजनेतरलोकोऽयमधुना न हि जायते ।।१०/३६ ।। संसार में कुछ मनुष्य सज्जनों के और कुछमनुष्य दुर्जनों केपक्षपाती सदा से हैं। ३४०. सुतप्राणा हिमातरः ।।८/५४|| माताओं के प्राण पुत्र ही होते हैं। ३४१. सुधासूते: सुधोत्पत्तिरपि लोके किमद्भुतम् ।।३/५२ ।। चन्द्रमा से अमृत की उत्पत्ति होती है, क्या इसमें किसी को आश्चर्य सूक्तिसंग्रह सर्प से भयभीत लोग क्या सर्प के मुँह में हाथ डालते हैं ? ३२५. सर्पिष्पातेन सप्तार्चिरुदर्चिः सुतरां भवेत् ।।५/३।। अग्नि में घी डालने से अग्नि भड़क उठती है। ३२६. सभयस्नेहसामर्थ्या:स्वाम्यधीना हि किङ्कराः ।।९/१९ ।। नौकर अपने स्वामी से डरते हैं और उनसे स्नेह की भावना भी रखते हैं। ३२७. सम्पदामापदांचाप्तिाजेनैव हि केनचित् ।।८/६५ ।। सम्पत्ति और विपत्ति की प्राप्ति किसी न किसी बहाने से ही होती है। ३२८, समीहितार्थसंसिद्धौ मनः कस्य न तुष्यति ।।१/१०१।। इच्छित कार्य सिद्ध होने पर किसका मन सन्तुष्ट नहीं होता? ३२९. समीहितेऽपि साहाय्ये प्रयत्नो हि प्रकृष्यते ।।६/४० ।। इच्छित कार्य में सहायक मिलने पर उत्साह बढ़ जाता है। ३३०. समौ हि नाट्यसभ्यानां सम्पदांच लयोदयौ ।।१०/४०।। रंगमंच पर होनेवाली हानि-लाभ का अच्छा-बुरा प्रभाव दर्शकों पर होता ही नहीं। ३३१. सर्वथा दग्धबीजाभा: कुतो जीवन्ति निघृणाः ।।९/१८ ।। जले हुए बीज केसमान कान्तिवाले सर्वथा दयारहित जीव कैसे जी सकते हैं? ३३२. सर्वदा भुज्यमानो हि पर्वतोऽपि परिक्षयी ।।३/५।। हमेशा भोगा जानेवाला पर्वत भी नष्ट हो जाता है। ३३३. संसारविषये सद्यः स्वतो हि मनसोगतिः ।।८/८।। संसार के विषयों में मन की प्रवृत्ति स्वयमेव होती है। ३३४. संसारेऽपि यथायोग्याभोग्यान्ननु सुखी जनः ।।४/१।। संसार में अनुकूल भोग-सामग्री से मनुष्य सुखी होता है। ३३५. संसारोऽपि हिसार: स्याद्दम्पत्योरेककण्ठयोः ।।९/३५ ।। पति-पत्नी के मतैक्य से संसार भी सारभूत लगता है। ३३६. संसृतौ व्यवहारस्तु न हि मायाविवर्जितः ।।३/२७ ।। संसार में मायाचार रहित व्यवहार नहीं होता। ३४२. सौगन्धिकस्य सौगन्ध्यं शपथात्किं प्रतीयते ।।६/४७ ।। सुगन्धित नीलकमल की सुगन्ध के लिए शपथ खाने की जरूरत नहीं होती। ३४३. सौभाग्यं हि सुदुर्लभम् ।।१/८।। सद्भाग्य की प्राप्ति होना दुर्लभ है। ३४४. सौभ्रानं हि दुरासदम् ।।१/१०७।। सच्चा भाई मिलना बहुत कठिन है। ३४५. स्त्रीणामेव हि दुर्मतिः ।।३/४० ।। स्त्रियों के दुर्बुद्धि ही होती है। ३४६. स्त्रीणां मौढ्यं हि भूषणम् ।।९/३३ ।। मूर्खता स्त्रियों का आभूषण है। ३४७. स्त्रीरागेणात्र के नाम जगत्यां न प्रतारिताः ।।३/४३ ।। संसार में ऐसे कौन पुरुष हैं, जो स्त्रियों के राग से नहीं ठगाये गये हैं ? ३४८. स्त्रीष्ववज्ञा हि दुःसहा ।।१/५६।। स्त्रियों की अवज्ञा पुरुषों के लिए असह्य होती है। ३४९. स्थाने हि कृतिनां गिरः ।।१०/२७।।

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