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सूक्तिसंग्रह
स्नेहीजनों पर प्रेमभाव हो ही जाता है, क्योंकि प्रेमभाव मनोहर होता है।
२८०. वत्सलैः सह संवासे वत्सरो हि क्षणायते ||८/३ ॥
प्रियजनों के साथ रहने पर वर्ष भी क्षण के समान लगता है। २८१. वपुर्वक्ति हि माहात्म्यं दौरात्म्यमपि तद्विदाम् ||५ / ४७ ॥
शरीर के लक्षणों को जाननेवाले शरीर को देखकर ही मनुष्य की सज्जनता और दुर्जनता का निर्णय कर लेते हैं।
२८२. वपुर्वक्ति हि सुव्यक्तमनुभावमनक्षरम् ।।७/७३ ।।
शब्दोच्चारण के बिना ही शरीर की बनावट मनुष्य के प्रभाव को बताती है।
२८३. वशिनां हि मनोवृत्ति: स्थान एव हि जायते ।।८/६६ ॥
जितेन्द्रिय पुरुषों के मन की प्रवृत्ति उचित स्थान में ही होती है। २८४. व्यवस्था हि सतां शैली साहाय्येऽप्यत्र किं पुनः ।। ११/८१ ।। महापुरुषों की शैली व्यवस्थित होती है, इसमें सहायता मिल जाए तो फिर कहना ही क्या ?
२८५. वाञ्छितार्थेऽपि कातर्यं वशिनां न हि दृश्यते ।।८/७२ ।।
जितेन्द्रिय मनुष्य इच्छित पदार्थ को पाने में भी अधीर नहीं होते। २८६. वाञ्छिता यदि वाञ्छेयुः ससारैव हि संसृतिः ||९ / १ ॥
जिनको हम चाहते हैं, यदि वे भी हमें चाहें तो संसार भी सारभूत भासित होने लगता है।
२८७. वार्धिमेव धनार्थी किं गाहते पार्थिवानपि ।।३ / ११ ।।
धन का इच्छुक मनुष्य समुद्र की ही यात्रा करता है क्या ? अरे वह तो द्वीपद्वीपान्तरों और राजा-महाराजाओं को भी प्राप्त करता है। २८८. विक्रिया हि विमूढानां सम्पदापल्लवादपि ||५ / ३३ ||
मूर्खों को ही अत्यल्प सम्पत्ति और विपत्ति में हर्ष-विषाद हुआ करते हैं। २८९. विचाररूढकृत्यानां व्यभिचारः कुतो भवेत् ।।९ / ३१ ।।
विचारपूर्वक कार्य करनेवालों के कार्य में हानि कैसे हो सकती है ?
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२९०. विचार्यैवेतरैः कार्यं कार्यं स्यात्कार्यवेदिभिः ||८/६० ।।
कार्यकुशल मनुष्य को दूसरों के साथ विचार करके ही कार्य करना चाहिए। २९१. विधित्सिते ह्यनुत्पन्ने विरमन्ति न पण्डिताः || १०/६ ॥
जबतक इच्छित कार्य नहीं होता, तबतक बुद्धिमान पुरुष विराम नहीं लेते। २९२. विधिर्घटयतीष्टार्थे: स्वयमेव हि देहिनः ||७ / ७१ ।।
कर्म इष्ट पदार्थों का प्राणियों से सम्बन्ध स्वयमेव करा देता है। २९३. विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ।।२/२६ ।।
विद्वान सब जगह पूजा जाता है।
२९४. विद्वेषः पक्षपातश्च प्रतिपात्रं च भिद्यते ||८/२४ ||
प्रत्येक वस्तु सम्बन्धी राग और द्वेषभाव भिन्न-भिन्न होता है। २९५. विनयः खलु विद्यानां दोग्ध्री सुरभिरञ्जसा ||७ / ७७ ।।
गुरु की सच्ची विनय विद्याओं को देनेवाली कामधेनु है । २९६. विपच्च सम्पदे हि स्याद्भाग्यं यदि पचेलिमम् ||८/१९ ।।
यदि पुण्य का उदय हो तो विपत्ति भी सम्पत्ति का कारण बन जाती है। २९७. विपदोऽपि हि तद्भीतिर्मूढानां हन्त बाधिका ||४/२९ ।।
मूर्ख मनुष्यों को विपत्ति का भय विपत्ति से भी अधिक दुःखदायक होता है। २९८. विपदो वीतपुण्यानां तिष्ठन्त्येव हि पृष्ठतः । । १० / ३४ ।।
पुण्यहीन मनुष्यों के पीछे विपत्तियाँ लगी ही रहती हैं।
२९९. विपाके हि सतां वाक्यं विश्वसन्त्यविवेकिनः ।।१ / ३५ ।।
अविवेकी व्यक्ति संकट आने पर सज्जनों की बात का विश्वास करते हैं। ३००. विवेकभूषितानां हि भूषा दोषाय कल्पते ।।७/५ ।।
विवेक से शोभायमान विवेकीजनों को आभूषण दोषरूप ही प्रतीत होते हैं। ३०१. विशेते हि विशेषज्ञो विशेषाकारवीक्षणात् ॥१८ / ३४ ।।
विशेषज्ञ पुरुष विशेषताओं को देखकर सन्देह करने लगते हैं। ३०२. विशेषज्ञा हि बुध्यन्ते सदसन्तौ कुतश्चन ||९ / २४ ॥
बुद्धिमान किसी न किसी कारण से सत्य-असत्य को जान लेते हैं।
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