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३५ कल्याणकारक कार्यों में विघ्न बहुत आते हैं - यह नियम आज का नहीं, अनादि का है।
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सूक्तिसंग्रह ३०३. विशृङ्खला न हि क्वापि तिष्ठन्तीन्द्रियदन्तिनः ।।८/६३ ।।
बन्धनरहित इन्द्रियरूपी हाथी किसी भी एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते। ३०४. विस्फुलिङ्गेन किंशक्यं दग्धुमाद्रमपीन्धनम् ।।२/१२।।
क्या अग्नि की चिंगारी मात्र से गीले ईन्धन को जलाया जा सकता है ? ३०५. विषयासक्तचित्तानां गुण: कोवान नश्यति ।।१/१०॥
विषय में आसक्त पुरुषों के कौन-से गुण नष्ट नहीं होते? ३०६. विस्मृतं हि चिरं भुक्तंदुःखं स्यात्सुखलाभतः ।।८/११।।
बहुत काल तकभोगा गया महादु:ख सुख की प्राप्ति होते ही विस्मृत होजाता है। ३०७. वीरेण हि मही भोग्या योग्यतायां च किं पुनः ।।१०/३० ।।
यह पृथ्वी वीर पुरुषों द्वारा ही भोगने योग्य है और यदि उनमें विशेष योग्यता
हो तो फिर कहना ही क्या? ३०८. वृषला: किं न तुष्यन्ति शालेये बीजवापिनः ।।११/५।। खेत में बीज बोनेवाले किसान क्या सन्तुष्ट नहीं होते?
'श' ३०९. शरण्यं सर्वजीवानां पुण्यमेव हिनापरम् ।।७/३३।।
जीवों का रक्षक एकमात्र पूर्वबद्ध पुण्य ही है; और कोई नहीं। ३१०. शस्तं वस्तु हि भूभुजाम् ।।३/४९।।
राज्य की सर्वोत्तम वस्तु राजाओं की ही होती है। ३११. शैत्ये जाग्रति किं नु स्यादातपार्ति: कदाचन ।।२/६० ।।
शीत के जागृत होने पर क्या कभी गर्मी का दु:ख होता है ? ३१२. शोच्याः कथं न रागान्धा ये तु वाच्यान्न बिभ्यति ।।७/५०।।
जो रागान्ध पुरुष अपवाद एवं निन्दा से नहीं डरते, उनकी दशा शोचनीय क्यों न होवे?
'श्र' ३१३. श्रेयांसि बहुविघ्नानीत्येतन्नह्यधुनाभवत् ।।२/१३ ।।
३१४. सचेतनः कथं नु स्यादकुर्वन्प्रत्युपक्रियाम् ।।५/१४ ।।
प्रत्युपकार नहीं करनेवाला सचेतन कैसे हो सकता है? ३१५. सत्यामप्यभिषङ्गा जागर्येव हि पौरुषम् ।।१/२८।।
अकस्मात् दैवादिजन्य पीड़ा होने पर पुरुषार्थ जगता ही है। ३१६. सत्यायुषि हि जायेत प्राणिनां प्राणरक्षणम् ।।३/१९ ।।
आयुकर्म शेष रहने पर प्राणियों के प्राणों की रक्षा हो ही जाती है। ३१७. सतां हि प्रह्वतां शान्त्यै खलानां दर्पकारणम् ।।५/१२ ।।
सज्जनों की शान्ति का कारण होनेवाली नम्रता दुर्जनों के लिए घमण्ड का
कारण बनती है। ३१८. सतां हि प्रह्वतांशास्ति शालीनामिव पक्वताम् ।।६/४८।।
धान्यों के समान महापुरुषों की विनम्रता उनकी योग्यता का परिचय देती है। ३१९. सति हेतौ विकारस्य तदभावो हि धीरता ।।२/४०।।
विकार के कारण विद्यमान होने पर भी विकारी न होना ही धीरता है। ३२०. सदसत्त्वं हि वस्तूनां संसर्गादेव दृश्यते ।।५/३९ ।।
वस्तुओं का अच्छा-बुरापना, अच्छे-बुरे पदार्थों के संसर्ग से ही होता है। ३२१. सन्निधावपि दीपस्य किं तमिस्र गुहामुखम् ।।१०/६० ।।
दीपक की समीपता होने पर भी क्या गुफा का मुख अन्धकार से युक्त रह
सकता है? ३२२. सन्निधाने समर्थानां वराको हि परो जनः ।।७/६६।।
समर्थ व्यक्ति के सामने अन्य व्यक्ति दीन हो जाता है। ३२३. सन्निधौ हि स्वबन्धूनां दुःखमुन्मस्तकं भवेत् ।।१/९० ।।
हितचिन्तकों का सामीप्य होने पर दुःख बढ़ ही जाता है। ३२४. सर्पशङ्काविभीताः किं सर्पास्ये करदायिनः ।।३/१६ ।।