Book Title: Suktisangrah
Author(s): Yashpal Jain
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 11
________________ २१ २० सूक्तिसंग्रह १४७. न हि नादेयतोयेन तोयधेरस्ति विक्रिया ।।११/३।। नदी के जल से समुद्र में विकार नहीं होता। १४८. न हि नीचमनोवृत्तिरेकरूपास्थिता भवेत् ।।४/४५।। नीच मनुष्यों की मनोवृत्ति सदैव एक-सी स्थिर नहीं रहती। १४९. न हि प्रसादखेदाभ्यां विक्रियन्ते विवेकिनः ।।८/२५ ।। विवेकी पुरुष हर्ष-विषादसे विकार को प्राप्त नहीं होते। १५०. न हि प्राणवियोगेऽपि प्राज्ञैर्लयं गुरोर्वचः ।।५/१३।। बुद्धिमान मरण उपस्थित होने पर भी गुरु के वचनों का उल्लंघन नहीं करते। १५१. न हि भेद्यं मनः स्त्रियाः ।।४/२७।। स्त्रियों का मन भेद्य नहीं है। १५२. न हि मातुः सजीवेन सोढव्या स्यादुरासिका ।।८/६१।। माता की दु:खी अवस्था किसी भी सचेतन के लिए सह्य नहीं होती। १५३. न हि मुग्धा सतां वाक्यं विश्वसन्ति कदाचन ।।७/२।। भोले लोग सज्जनों की बात का कभी-कभी विश्वास नहीं करते। १५४. न हि रक्षितुमिच्छन्तो निर्दहन्ति फलद्रुमम् ।।१/२९ ।। फल सहित वृक्ष के रक्षक उस वृक्ष को नहीं जलाते। १५५. न हि वारणपर्याणं भर्तु शक्तो वनायुजः ।।७/२०।। सर्वाधिक शक्तिशाली घोड़ा हाथी जितना भार ढोने में समर्थ नहीं होता। १५६. न हि वारयितुं शक्यं पौरुषेण पुराकृतम् ।।५/११।। पूर्वकृत दुष्कर्म का पुरुषार्थ से निवारण करना सम्भव नहीं। १५७. न हि वेद्यो विपत्क्षणः ।।३/१३ ।। आपत्ति का समय अज्ञात होता है। १५८. न हि शक्यं पदार्थानां भावनं च विनाशवत् ।।२/४९ ।। पदार्थों के विनाश के समान उनका उत्पन्न करना सरल नहीं है। १५९. न हि सन्तीह जन्तूनामपाये सति बान्धवाः ।।।४/३०॥ दुनिया में आपत्ति आ जाने पर प्राणियों का कोई सहायक नहीं रहता। १६०. न हि सोढव्यतां याति तिरश्चां वा तिरस्क्रिया ।।५/२।। तिर्यञ्चों को भी अपना अपमान सह्य नहीं होता। १६१. न हि स्थाल्यादिभिःसाध्यमन्नमन्यैरतण्डुलैः ।।६/१८॥ चावलरूप उपादान कारण बिना मात्र बटलोई आदि निमित्त कारणों से साध्यभूत पका चावल प्राप्त नहीं हो सकता। १६२. न हि स्ववीर्यगुप्तानां भीति: केसरिणामिव ।।५/३२ ।। पराक्रमी सिंह के समान स्वपराक्रम से ही रक्षित पुरुषों को भय नहीं रहता। १६३, न हाकालकृतं कर्म कार्यनिष्पादनक्षमम् ।।४/२३ ।। असमय में किया गया परिश्रम कार्यकारी नहीं होता। १६४. न हाङ्गलिरसाहाय्या स्वयं शब्दायतेतराम ||१/६४ ।। एक ही अँगुली से चुटकी नहीं बजती। १६५. न हात्र रोचते न्यायमादूषितचेतसे ।।४/२५ ।। ईर्ष्या से मलिन चित्तवाले व्यक्ति को सच्ची बात भी अच्छी नहीं लगती। १६६. न ह्यनिष्टेष्टसंयोगवियोगाभमरुन्तुदम् ।।४/२८ ।। अनिष्ट के संयोग और इष्ट के वियोग केसमान और कोई पीड़ा देनेवाला नहीं। १६७. न हामन्त्रं विनिश्चेयं निश्चिते च न मन्त्रणम् ।।१०/१० ।। बिना विचार किये कोई भी कार्य निश्चित नहीं करना चाहिए तथा निश्चित हो जाने पर पुन: विचार नहीं करना चाहिए। १६८. न हायोग्ये स्पृहा सताम् ।।२/७४ ।। सज्जन पुरुष की इच्छा अनुचित पदार्थ में नहीं होती। १६९. न ह्यारोढुमधिश्रेणिं योगपद्येन पार्यते ।।७/२१।। ऊँची नसैनी पर एक ही साथ चढ़ने में कोई समर्थ नहीं है। १७०. न ह्यासक्त्या तु सापेक्षोभानः पद्यविकासने ।।१०/४४ ॥ सूर्य कमलों को खिलाने के बाद अनासक्ति से अस्ताचल की ओर जाता है। १७१. न हासत्यं सतांवचः ।।९/१६।। सज्जनों के वचन असत्य नहीं होते।

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