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सूक्तिसंग्रह १२२. दग्धभूम्युप्तबीजस्य न हाङ्करसमर्थता ।।१/६२।।
जली हुई भूमि में बोये गये बीज में अंकुर पैदा करने की सामर्थ्य नहीं होती। १२३. दानपूजातप:शीलशालिनां किं न सिध्यति ।।१०/१९ ।।
दान, पूजा, तप और शील से सम्पन्न मनुष्य को क्या सिद्ध नहीं होता ? १२४. दीपनाशे तमोराशिः किमाह्वानमपेक्षते ।।१/५८।।
दीपककेबुझ जाने पर अन्धकार का समूह क्या निमन्त्रण की अपेक्षा रखताहै? १२५. दुःखचिन्ता हि तत्क्षणे ।।१/३२।।
दुःख की चिन्ता दु:ख के समय ही रहती है। १२६. दुःखस्यानन्तरं सौख्यं ततो दुःखं हि देहिनाम् ।।४/३६ ।।
प्राणियों को दु:ख के बाद सुख और सुख के बाद दुःख होता ही रहता है। १२७. दुःखस्यानन्तरं सौख्यमतिमात्रं हि देहिनाम् ।।३/३५ ।।
प्राणियों को दुःख के बाद का सुख अत्यधिक अच्छा लगता है। १२८. दुःखार्थोऽपि सुखार्थो हि तत्त्वज्ञानधने सति ।।३/२१ ।।
तत्त्वज्ञानरूपी धन केहोने पर दुःखदायकपदार्थभी सुख का हेतु होता है। १२९. दुर्जनाग्रे हि सौजन्यं कर्दमे पतितं पयः ॥१०/१५।।
दुष्ट मनुष्य के सामने सज्जनता कीचड़ में दूध डालने के समान है। १३०. दुर्जनेऽपि हि सौजन्यं सुजनैर्यदि सङ्गमः ।।१०/१३ ।।
यदि सज्जनों की संगति होवे तो दुर्जन में भी सज्जनता आ जाती है। १३१. दुर्बला हि बलिष्ठेन बाध्यन्ते हन्त संसृतौ ।।१०/३७।।
खेद है ! संसार में बलवान जीव दुर्बल के लिए बाधायें उत्पन्न करता है। १३२. दुर्लभो हि वरो लोके योग्यो भाग्यसमन्वितः ।।४/४४ ।।
लोक में भाग्यशाली एवं योग्य वर मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। १३३. दैवतेनापि पूज्यन्ते धार्मिकाः किं पुन: परैः ।।५/४१ ।।
धार्मिक पुरुष देवों के द्वारा भी पूज्य होते हैं; तो दूसरों की बात ही क्या ? १३४. दोषं नार्थी हि पश्यति ॥१/५२।।
कार्य की सफलता का इच्छुक मनुष्य दोष को नहीं देखता।
१३५. धनाशा कस्य नो भवेत् ।।३/२।।
धन की इच्छा किसके नहीं होती? १३६. धर्मो हि भुवि कामसूः ।।११/७८ ।।
इस संसार में धर्म सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाला है। १३७. धार्मिकाणां शरण्यं हि धार्मिका एव नापरे ।।२/१७।।
धर्मात्माओं के सहायक धर्मात्मा ही होते हैं; अन्य नहीं। १३८. ध्यातेऽपि हि पुरा दुःखे भृशं दुःखायते जनः ।।८/१३ ।।
पहले भोगे हुए दुःखों के स्मरण मात्र से मनुष्य अत्यधिक दुःखी होता है। १३९. ध्यातो गरुडबोधेन न हि हन्ति विषं बकः ।।६/२३ ।। गरुड़ मानकर बगुले का ध्यान करने से विष दूर नहीं होता।
__ 'न' १४०. नटायन्ते हि भूभुजः ।।१/१५।।
राजा नट के समान आचरण करते हैं। १४१. न विद्यते हि विद्यायामगम्यं रम्यवस्तुषु ।।७/५५॥
विद्या के होने पर कोई भी सुन्दर वस्तु अलभ्य नहीं है। १४२. न विभेति कुतो लोक आजीवनपरिक्षये ।।२/६५ ।।
आजीविका के साधन छिन जाने पर मनुष्य अत्यन्त भयभीत हो जाता है। १४३. न हि कार्यपराचीनैर्मृग्यते भुवि कारणम् ।।६/१५।।
संसार में कार्य से विमुख पुरुष कारण की खोज नहीं करते। १४४. न हि खादापतन्ती चेद्रत्नवृष्टिर्निवार्यते ।।११/१७।।
यदि आकाश से रत्नवृष्टि हो रही हो तो उसे रोका नहीं जाता। १४५. न हि तण्डुलपाकः स्यात्पावकादिपरिक्षये ।।११/६६ ।।
अग्नि आदिक न होने पर चावलों का पकना नहीं होता। १४६. न हि तिष्ठति राजसम् ॥१/५५॥
क्षत्रियतेज शान्त नहीं रह पाता।