Book Title: Suktisangrah Author(s): Yashpal Jain Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 5
________________ सूक्तिसंग्रह चमकदार रत्न को शाण पर चढ़ाकर उसे और घिसने से वह और अधिक चमकदार हो जाता है। १०.अदोषोपहतोऽप्यर्थ: परोक्त्वा नैव दूष्यते ।।४/४६।। निर्दोष पदार्थ किसी के कहने से ही दूषित नहीं हो जाता। ११. अदृष्टपूर्वदृष्टौ हि प्रायेणोत्कण्ठते मनः ।।७/६२।। मनुष्य का मन पहले नहीं देखी हुई वस्तु को देखने में प्राय: उत्कण्ठित रहता है। १२. अन्यैरशङ्कनीया हि वृत्तिर्नीतिज्ञगोचराः ।।९/१०।। नीतिज्ञ लोगों केव्यवहार में दूसरों को शंका नहीं होती। १३. अनवद्या सती विद्या फलमूकापि किं भवेत् ।।९/९।। निर्दोष और समीचीन विद्या कभी भी निष्फल होती है क्या ? १४. अनवद्या सती विद्या लोके किंन प्रकाशते ।।४/१९ ।। १. लोक में उत्तम एवं निर्दोष विद्या प्रसिद्ध नहीं होती है क्या ? २. लोक में उत्तम एवं निर्दोष विद्या किसको प्रकाशित नहीं करती? १५. अनवद्या हि विद्या स्याल्लोकद्वयफलावहा ।।३/४५।। निर्दोष विद्या इस लोक और पर लोक में उत्तम फल देनेवाली होती है। १६. अनपायादुपायाद्धि वाञ्छिताप्तिर्मनीषिणाम् ।।९/७ ।। बुद्धिमानों को इच्छित वस्तु की प्राप्ति अमोघ उपायों से होती है। १७. अनुनयो हि माहात्म्यं महतामुपबृंहयेत् ।।८/५२।। विनयभाव महापुरुषों की महानता को बढ़ाता है। १८. अनुरागकृदज्ञानां वशिनां हि विरक्तये ।।७/३६ ।। मूखों को प्रिय लगनेवाली वस्तु जितेन्द्रिय पुरुषों को विराग के लिए होती है। १९. अनुसारप्रियो न स्यात्को वा लोकेसचेतनः ।।७/७२।। दुनिया में कौन प्राणी अपने अनुकूल व्यक्ति से प्रेम नहीं करता? २०. अन्तस्तत्त्वस्य याथात्म्ये न हि वेषो नियामकः ।।९/२१ ।। बाह्य वेष अन्तर्मन की यथार्थता का नियामक नहीं है। २१. अन्यरोधि न हि क्वापि वर्तते वशिनां मनः ।।९/२।। जितेन्द्रिय पुरुषों का मन/विचार दूसरों से रुकनेवाला नहीं होता। २२. अन्याभ्युदयखिन्नत्वं तद्धि दौर्जन्यलक्षणम् ।।३/४८ ।। दूसरे की उन्नति में जलना ही दुर्जनता का लक्षण है। २३. अन्तिकं कृतपुण्यानां श्रीरन्विष्य हि गच्छति ।।३/४६ ।। लक्ष्मी पुण्यवान पुरुषों को खोजती हुई स्वयं उनके पास चली जाती है। २४. अन्यैरशङ्कनीया हि वृत्तिर्नीतिज्ञगोचराः ।।९/१०।। नीतिज्ञ लोगों केव्यवहार में किन्हीं को भी शंका नहीं होती। २५. अपथघ्नी हि वाग्गुरोः ।।२/४०।। गुरु के वचन कुमार्ग के नाशक होते हैं। २६. अपदानमशक्तानामद्भुताय हि जायते ।।७/६५ ।। स्वयं के लिए अशक्य कार्य दूसरों द्वारा कर दिया जाना असमर्थ लोगों को आश्चर्य के लिए होता है। २७. अपदोषानुषङ्गा हि करुणा कृतिसम्भवा ।।७/३४।। विद्वानों की करुणा निर्दोष होती है। २८. अपश्चिमफलं वक्तुं निश्चितं हि हितार्थिनः ।।७/५४ ।। दूसरों का हित चाहनेवाले सज्जन पुरुष निश्चितरूप से सर्वोत्तम फलदायक बात (तत्त्वज्ञान) ही कहना चाहते हैं। २९. अपुष्कला हि विद्या स्यादवज्ञैकफला क्वचित् ।।३/४४ ।। अपूर्ण ज्ञान अपमान का फल देनेवाला होता है। ३०. अप्राप्ते हि रुचि: स्त्रीणां न तु प्राप्ते कदाचन ।।७/३५ ।। स्त्रियों की रुचि अप्राप्त पुरुष में होती है, सहज प्राप्त पति में नहीं। ३१. अमित्रो हि कलत्रं च क्षत्रियाणां किमन्यतः ।।८/५९ ।। क्षत्रियों (राजाओं) के लिए अपनी स्त्री ही शत्रु हो जाती है तो अन्य लोगों की तो बात ही क्या ? ३२. अमूलस्य कुतः सुखम् ।।१/१७।। मूल हेतु के बिना सुख कैसे हो सकता है?Page Navigation
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