Book Title: Subhashit Sangrah
Author(s): Sukhsagar
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ६ )
दान कहीं भी नक्कमा नहीं होता ।
पात्रे धर्मनिबन्धनं तदपरे प्रोद्यद्दयाख्यापकं । मित्रे प्रीतिविवर्धकं रिपुजने वैरापहारक्षमं ॥
भृत्ये भक्तिभरावदं नरपतौ सन्मानपूजाप्रदं । भट्टादौ च यशस्करं वितरणं न क्वाप्यहो निष्फलम् ||२८|| गुरुमति विना संब निष्फल है ।
विना गुरुभ्यो गुणनीरधिम्यो, जानाति धर्म न विचचणोऽपि । यथार्थसार्थं गुरुलोचनोऽपि, दीपं विना पश्यति नांधकारे । २९| जैसी भावना वैसी सिद्धि ।
मन्त्रे देवें गुरौ तीर्थे दैवज्ञे स्वमभेषजे ।
यादृशी भावना यस्य सिद्धिर्भवति तादृशी ॥ ३० ॥
असार से सार लेना चाहिए ।
दानं वित्तातं वाचः, कीर्तिधर्मों तथायुषः । परोपकरणं कायाद, सारात्सारमुद्धरेत् ।। ३१ ।। म्यादिपाणी के फेन समान है ।
कल्लोलचपला लक्ष्मीः, संगमाः स्वप्नसन्निभाः । - वात्याव्यतिकरोत्क्षिप्त, - तूलतुल्यं च यौवनम् ॥ ३२ ॥ कृपण का धन निष्फल होता है । शास्त्रैर्निःप्रतिभस्य किं गतदृशो दीप्रैः प्रदीपैश्च किं । किं क्लीवस्य वधूजनैः प्रहरणैः किं कातरस्योम्बणैः ॥
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 228