Book Title: Subhashit Sangrah
Author(s): Sukhsagar
Publisher: Jinduttsuri Gyanbhandar
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www. kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(५) संगति का माहात्म्य ।
पश्य संगस्य माहात्म्यं, स्पर्शपाषाणयोगतः ।
लोहं स्वर्णीमवेत् स्वर्ण,-योगात्काचो मणीयते ॥२२॥ संसर्ग से दोष और गुण आते है । गवाशनानां स वचः शृणोति,अहं च राजन् मुनिपुंगवानाम् । प्रत्यक्षमेतद्भवतापि दृष्ट, संसर्गजा दोषगुणा भवन्ति ॥२३॥ मन ही मोक्ष को बन्ध को प्राप्त करता है ।
मन एव मनुष्याणां, कारणं बन्धमोक्षयोः । बन्धस्तु(स्य) विषयासंगे(गो), मुक्तनिर्विषयं मनः॥२४॥ मणमरणे इं(d)दियमरणं, इंदियमरणे मरंति कम्माई ।
कम्ममरणेण मुक्खो, तम्हा मणमारणं बिति ।। २५ ॥ हस्तादि दानादि से शोभते है। दानेन पाणिर्न तु कंकणेन, मानेन तृप्तिन तु भोजनेन । भनेन कान्तिनं तु चन्दनेन, ध्यानेन मुक्तिनं तु दर्शनेन ॥२६॥ मत का धन अच्छा नहीं है । दुर्मियोदयमन्त्रसंग्रहपरः पत्युर्वध बन्धकी। ध्यायत्यर्थपतेर्मिषग्गदगणोत्पातं कलिं नारदः ॥ दोषग्राही जनश्च पश्यति परच्छिद्रं छलं राक्षसी । निःपुत्रं म्रियमाणमाढ्यमवनीपालो हहा वाञ्च्छति ॥२७॥
For Private And Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 ... 228