Book Title: Sthanang Sutram Sanuvadasya Author(s): Sudharmaswami, Abhaydevsuri Publisher: Abhaydevsuri View full book textPage 3
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org धृष्टतामां प्रधान एवा अने स्व-परना उपकारने माटे अर्थनी रचनाना अभिलापवाळा होवाथी ज नथी विचारेल पोतानी योग्यता जेणे तेमज जुगार आदि व्यसनोमां जोडायेलानी जेम ( एवा अमारावडे ) कुशल एवा प्राचीन पुरुषोना प्रयोगने अनुसरी, तेम ज कडक पोतानी मतिवडे विचारीने तेमज तथारूप वर्तमानकालीन गीतार्थ पुरुषो पासेथी तेना उपायोने सारी रीते पूछने विकासनी जेवो अनुयोग प्रारंभ कराय छे. 66 ते अनुयोगनी फलादि द्वारना निरूपण करवाथी प्रवृत्ति थाय छे. यत उक्तम्* तस्स फलेजोगं मंगल-समुदायत्था तहेव दौराई । तब्भेयंनिरुँत्तिक्कम - पयोयणाई च वच्चाई ॥ १ ॥ " * १. फल. अर्थ - शास्त्रना विषयमा बुद्धिमान् मनुष्योनी प्रवृत्ति माटे फल अवश्य कहेनुं जोईए, अन्यथा आ ग्रंथनुं कई प्रयोजन ( फल ) नथी एवी आशंका करनारा श्रोताओ कंटकशाखा ( बावल )ना मर्दननी जेम प्रवृत्ति न करे. वळी ते फल बे प्रकारनुं छे–१ अनंतर, २ परंपर. ते बेमां अर्थनुं जाणवुं ते अनंतर फल छे, अने अर्थना जाणवापूर्वक अनुष्ठानथी जे मोक्षनी प्राप्ति थाय ते परंपर फल कहेवाय छे. (१) विशेषावश्यक ( भाष्य ) नी टीकामां प्रयोजन द्वार जुदुं कयुं छे. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir For Private and Personal Use OnlyPage Navigation
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