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धृष्टतामां प्रधान एवा अने स्व-परना उपकारने माटे अर्थनी रचनाना अभिलापवाळा होवाथी ज नथी विचारेल पोतानी योग्यता जेणे तेमज जुगार आदि व्यसनोमां जोडायेलानी जेम ( एवा अमारावडे ) कुशल एवा प्राचीन पुरुषोना प्रयोगने अनुसरी, तेम ज कडक पोतानी मतिवडे विचारीने तेमज तथारूप वर्तमानकालीन गीतार्थ पुरुषो पासेथी तेना उपायोने सारी रीते पूछने विकासनी जेवो अनुयोग प्रारंभ कराय छे.
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ते अनुयोगनी फलादि द्वारना निरूपण करवाथी प्रवृत्ति थाय छे. यत उक्तम्* तस्स फलेजोगं मंगल-समुदायत्था तहेव दौराई । तब्भेयंनिरुँत्तिक्कम - पयोयणाई च वच्चाई ॥ १ ॥ "
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१. फल.
अर्थ - शास्त्रना विषयमा बुद्धिमान् मनुष्योनी प्रवृत्ति माटे फल अवश्य कहेनुं जोईए, अन्यथा आ ग्रंथनुं कई प्रयोजन ( फल ) नथी एवी आशंका करनारा श्रोताओ कंटकशाखा ( बावल )ना मर्दननी जेम प्रवृत्ति न करे. वळी ते फल बे प्रकारनुं छे–१ अनंतर, २ परंपर. ते बेमां अर्थनुं जाणवुं ते अनंतर फल छे, अने अर्थना जाणवापूर्वक अनुष्ठानथी जे मोक्षनी प्राप्ति थाय ते परंपर फल कहेवाय छे. (१)
विशेषावश्यक ( भाष्य ) नी टीकामां प्रयोजन द्वार जुदुं कयुं छे.
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