Book Title: Sthanang Sutra Ppart 02
Author(s): Devchandra Maharaj
Publisher: Mundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
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स्सीए सद्धिं संवासं गच्छति १ (६) चउबिहे संवासे पं० तं०-रक्खसे नाममेगे रक्खसीए सद्धिं संवासं गच्छति, रक्खसे नाममेगे माणुसीए सद्धिं संवासं गच्छति ४ (७) सू० ३५३, चउविहे अवद्धंसे पं० तं०-आसुरे आभियोगे संमोहे देवकिब्बिसे चउहि ठाणेहिं जीवा आसुरत्ताते कम्म पगरेंति तं०-कोवसीलताते पाहडसीलयाते संसत्ततवोकम्मेणं निमित्ताजीवयाते, चउहिं ठाणेहिं जीवा आभिओगत्ताते कम्मं पगरेति तं०-अत्तकोसेणं परपरिवातेणं भूतिकम्मेणं कोउयकरणेणं, चउहि ठाणेहिं जीवा सम्मोहत्ताते कम्मं पगते तं०-उम्मग्गदेसणाए मग्गंतराएणं कामासंसपओगेणं भिजानियाणकरणेणं, चउहि ठाणेहिं जीवा देवकिब्बिसियत्ताते कम्मं पगरेंति तं०-अरहंताणं अवन्नं वयमाणे, अरहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवनं वयमाणे, आयरिय उवज्झायागमवन्नं बदमाणे चाउवन्नस्स संघस्स अवन्नं वदमाणे । सू० ३५४ __ मूलार्थ:-चार प्रकारनो संवास-संभोग कहेलो छे, ते आ प्रमाणे-दिव्य (वैमानिक) संबंधी, असुर-भवनपति संबंधी, राक्षसव्यंतर संबंधी अने मनुष्य संबंधी. (१) चार प्रकारनो संवास कहेलो छ, ते आ प्रमाणे-१ कोईक वैमानिक देव 'देवी साथे संवास करे छ, २ कोईक देव असुरी साथे संवास करे छे, ३ कोईक असुर देवी साथे संवास करे छे अने ४ कोईक असुर
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