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श्रीस्थानाङ्कपत्र सानुबाद
१ स्थान काभ्ययने उद्देशः४ | तरककुम्भसमपुरुषाः सू० ३५९
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पुरुषोने ज प्रीतपादन करवानी इच्छावाळा सत्रकार सत्रना विस्तारने कहे छे-आ सत्र सुगम छे. विशेष ए के-पूर्ण-समग्र अवयव युक्त अथवा प्रमाणोपेत, वळी पूर्ण-मधु विगेरेथी भरेल, आ प्रथम, बीजा भांगाने विषे तुच्छ-खाली, त्रीजा भांगामां तुच्छ-अपूर्ण अवयववाळो अथवा लघु अने चतुर्थ भंग सुगम छे. अथवा पूर्ण भरेल, पहेला अने पछी पण पूर्ण, एवी रीते चार भांगा जाणवा. (१) पुरुष तो जाति विगेरे गुणोथी पूर्ण, वळी ज्ञानादि गुणोथी पूर्ण अथवा धनथी के ज्ञानादि गुणोथी प्रथम पूर्ण, एवी रीते बीजा त्रण भांगा पण जाणवा. (२) अवयवोवडे अथवा दहीं विगेरेथी पूर्ण अने जोनाराओने पूर्ण ज जणाय छे-भासे छे ते पूर्णावभासी-आ एक, बीजो तो पूर्ण छ पण कोईक हेतुथी विवक्षित प्रयोजनना असाधकपणादिने लईने तुच्छ जणाय छे. एम बीजा वे भंग जाणवा. (३) पुरुष तो धन, श्रुतादिवडे पूर्ण अने तेनो विनियोग करवाथी-वापरवाथी पूर्ण ज जणाय छे-आ एक, बीजो तो धनादिनो उपयोग न करवाथी तुच्छ ज जणाय छ, त्रीजो तो धनादिवडे तुच्छ-हीन छे परन्तु कोई पण रीते प्रसंगने उचित प्रवृत्ति करवाथी पूर्णनी माफक जणाय छे अने चोथो तो तुच्छ-धन, श्रुतादिथी रहित, आने लईने ज तेनो वपराश न करवाथी तुच्छ जणाय छे. (४) तथा पाणी विगेरेथी पूर्ण, वळी पूर्ण अथवा पुण्य पवित्र रूप छे जेनुं ते पूर्णरूप अथवा पवित्ररूप-आ प्रथम, द्वितीय भंगमां तुच्छ-हीन छे आकार जेनो ते तुच्छरूप. एम शेष बे भंग पण जाणवा. (५) पुरुष तो ज्ञानादिवडे पूर्ण अने पूर्णरूप अथवा विशिष्ट रजोहरणादि द्रव्यलिंगना सद्भावथी पुण्यरूप सुसाधु-आ एक, द्वितीय भंगमां कारणवशात् तजेल वेषवाळो सुसाधु, तृतीय भंगमा तुच्छ-ज्ञानादिथी रहित निह्ववादिक अने चतुर्थ भंगमां | ज्ञानादिथी हीन अने द्रव्यलिंगथी हीन गृहस्थादि. (६) तथा पूर्ण पूर्ववत् ('अपि' शब्द तो तुच्छनी अपेक्षाए समुच्चय अर्थमां
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