Book Title: Sthanang Sutra Ppart 02
Author(s): Devchandra Maharaj
Publisher: Mundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 421
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १ संयत, २ असंयत, ३ संयतासंयत-देशविरति अने ४ नोसंयतनोअसंयत (सिद्ध) (सू० ३६५) | टीकार्थ:-'चउब्विहे' त्यादि० प्रण सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के-जे कराय ते कर्म-ज्ञानावरणीय विगेरे. ते १ शुभ| पण्यप्रकतिरूप, पुनः शुभ-शुभना अनुबंधवाळ होवाथी, भरतादिनी जेम. २ शुभ पूर्ववत् पण अशुभना अनुबंधवाळं होवाथीं अशभ के. ब्रह्मदत्त विगेरेनी जेम. ३ अशुभ-पापप्रकृतिरूप, पण शुभना अनुबंधवाळ होवाथी शुभ छ-दुःखविशिष्ट अकाम निर्जरावाळा गाय विगेरेनी जेम. अशुभ पूर्ववत् वळी अशुभना अनुबंधवाळ होवाथी अशुभ छ, धीवर विगैरेनी जेम. (१) १शभ-साता विगेरे, जेम सातादिपणाए पांच्यु तेम ज उदयमा जे आवे ते शुभविपाक. २ शुभपणाए जे बांधलं परंत संक्रमकरणवशात अशुभपणाए उदयमा आवे ते बीजुं, संक्रमनामाकरण( जीवना सामर्थ्य )ना वशथी कर्मने विष बीजा कर्मना प्रवेश थाय छे. कधुं छे के-" मूळप्रकृतिवडे अभिन्न, उत्तरप्रकृतिओने आत्मा, प्रकृतिना स्वभावथी संक्रमावे छ अर्थात जे प्रकृतिमा संक्रमावे तत्स्वरूप संक्रमती प्रकृति थई जाय छे, प्रश्न-आत्मा अमृतं होवाथी केवी रीते संक्रमावे ? उत्तर-अ. ध्यवसायप्रयोगवडे केम के आत्माने कर्मजन्य अध्यवसायो होय छे तेने लईने संसारस्थ आत्मा कथंचित् मूर्त पण छे ॥१॥" तथा मतांतर आ प्रमाणे जाणवोमोत्तण आउयं खल. दंसणमोहं चरित्तमोहं च। सेसाणं पयडीणं, उत्तरविहिसंकमो भणिओ।२१४। आयुषकर्मनी चार प्रकृतिओनो परस्पर संक्रम थाय नहिं तथा दर्शनमोहनीय अने चारित्रमोहनीयनी प्रकृतिओनो पर K.XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXKAKKKK For Private and Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450