Book Title: Sthanang Sutra Ppart 02
Author(s): Devchandra Maharaj
Publisher: Mundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
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१ संयत, २ असंयत, ३ संयतासंयत-देशविरति अने ४ नोसंयतनोअसंयत (सिद्ध) (सू० ३६५) | टीकार्थ:-'चउब्विहे' त्यादि० प्रण सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के-जे कराय ते कर्म-ज्ञानावरणीय विगेरे. ते १ शुभ| पण्यप्रकतिरूप, पुनः शुभ-शुभना अनुबंधवाळ होवाथी, भरतादिनी जेम. २ शुभ पूर्ववत् पण अशुभना अनुबंधवाळं होवाथीं
अशभ के. ब्रह्मदत्त विगेरेनी जेम. ३ अशुभ-पापप्रकृतिरूप, पण शुभना अनुबंधवाळ होवाथी शुभ छ-दुःखविशिष्ट अकाम निर्जरावाळा गाय विगेरेनी जेम. अशुभ पूर्ववत् वळी अशुभना अनुबंधवाळ होवाथी अशुभ छ, धीवर विगैरेनी जेम. (१) १शभ-साता विगेरे, जेम सातादिपणाए पांच्यु तेम ज उदयमा जे आवे ते शुभविपाक. २ शुभपणाए जे बांधलं परंत संक्रमकरणवशात अशुभपणाए उदयमा आवे ते बीजुं, संक्रमनामाकरण( जीवना सामर्थ्य )ना वशथी कर्मने विष बीजा कर्मना प्रवेश थाय छे. कधुं छे के-" मूळप्रकृतिवडे अभिन्न, उत्तरप्रकृतिओने आत्मा, प्रकृतिना स्वभावथी संक्रमावे छ अर्थात जे प्रकृतिमा संक्रमावे तत्स्वरूप संक्रमती प्रकृति थई जाय छे, प्रश्न-आत्मा अमृतं होवाथी केवी रीते संक्रमावे ? उत्तर-अ. ध्यवसायप्रयोगवडे केम के आत्माने कर्मजन्य अध्यवसायो होय छे तेने लईने संसारस्थ आत्मा कथंचित् मूर्त पण छे ॥१॥" तथा मतांतर आ प्रमाणे जाणवोमोत्तण आउयं खल. दंसणमोहं चरित्तमोहं च। सेसाणं पयडीणं, उत्तरविहिसंकमो भणिओ।२१४।
आयुषकर्मनी चार प्रकृतिओनो परस्पर संक्रम थाय नहिं तथा दर्शनमोहनीय अने चारित्रमोहनीयनी प्रकृतिओनो पर
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