Book Title: Sthanang Sutra Ppart 02
Author(s): Devchandra Maharaj
Publisher: Mundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
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तिते तिरिक्खजोणितनिव्वत्तिते मणुस्स. देवनिव्वत्तिते, एवं उवचिणिंसु वा उवचिणति वा उवचिणिस्संति वा, एवं चिय उवचिय बंध उदीर वेत तह निजरे चेव । सू०३८७, चउपदेसिया खंधा अणंता पन्नत्ता-चउपदेसोगाढा पोग्गला अणंता, चउसमयद्वितीया पोग्गला अणंता, चउगुणकालगा पोग्गला अणंता, जाव चउगुणलुक्खा पोग्गला अणंता पन्नत्ता । सू०३८८॥
चउत्थो उद्देसो समत्तो चउठाणं चउत्थमज्झयणं समत्तं ॥ मूलार्थ:-अनुराधा नक्षत्रना चार तारा कहेला छे. पूर्वाषाढा ए प्रमाणे छे, उत्तराषाढा ए प्रमाणे छे. (सू० ३८६ ) जीवोए चार स्थानवडे निवर्तित-कर्मपरिणामने पमाडेल पुद्गलोने पापकर्मपणाए चय-एकत्रित करेल छ, अर्थात् अल्प प्रदेशवाळी पापप्रकृतिओने बहु प्रदेशवाळी करेल छे, करे छे अने करशे, ते आ प्रमाणे-नैरयिकपणाए निर्वर्तित, तियंचयोनिक
पणाए निर्वर्तित, मनुष्यपणाए निवर्तित अने देवपणाए निर्वतित. एवी रीते उपचय-फरीने फरीने वृद्धि करेल छे, करे छे अने ४ करशे. ए प्रमाणे चय, उपचय, बंध-शिथिलबंधवाळा कोने गाढ बंधवाळा करेल छे, उदीरण-उदयमा आबेल दलिकने विषे उदयमां नहिं आवेल कर्मदलिकने वीर्यवडे आकर्षाने भोगवेल छे, वेदन-प्रतिसमय स्वविपाकवडे अनुभवेल छे तेमज निर्जरा
* करे छे अने करशे एम सर्वत्र समजवु.
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