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६६ : श्रमण. वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८
पुनः स्त्री पूर्वविद् नहीं होती है, ऐसा एकांत निषेध भी श्वेताम्बर मान्य मूल आगमों में तो मुझे कहीं देखने को नहीं मिला। स्त्री के लिए दृष्टिवाद के अध्ययन का निषेध भी प्राचीन ग्रन्थों में नहीं है। यह निषेध भी परवर्ती आचार्यों के द्वारा ही कल्पित किया गया है। परवर्ती आचार्यों ने तो श्रावक को भी आगम अध्ययन का अधिकारी नहीं माना है, किन्तु प्राचीन स्थिति ऐसी नहीं रही है।
पुनः पूर्वविद् होना यह मुक्ति की अनिवार्य शर्त नहीं है। जैन आचार्यों ने यह माना है कि नौ पूर्वों तक का ज्ञाता भी मिथ्यादृष्टि और अभव्य हो सकता है । ऐसी स्थिति में 'पूर्वज्ञान' मुक्ति की अनिवार्य शर्त नहीं है। इस सम्बन्ध में 'तत्त्वार्थसूत्रनिकष' नामक इसी कृति में विद्वत्वर्य मुनि प्रमाणसागरजी महाराज द्वारा प्रस्तुत दिगम्बर परम्परा के बहुश्रुत विद्वान् एवं चारित्र चूड़ामणि आचार्यप्रवर विद्यासागरजी महाराज का निम्न मन्तव्य द्रष्टव्य है, वे लिखते हैं- 'आचार्य महाराज इस सूत्र का बहुत अच्छा अर्थ करते हैं- 'शुक्ले चाद्ये पूर्वविदः ' इस सूत्र में 'च' शब्द है, इसके दो अर्थ निकलते हैं- पहला अर्थ तो यह है कि शुक्ले चा पूर्वविदः से शुक्ले चाद्ये अपूर्वविदः अर्थ भी निकालना चाहिए, क्योंकि निर्ग्रन्थ का जघन्य श्रुत जो है वह अष्टप्रवचन मातृका बताया गया है जो इस बात का परिचायक है कि कदाचित् जो पूर्वविद नहीं हैं, जैसे शिवभूति महाराज थे, वे अल्पज्ञानी होकर के भी भावश्रुत केवलत्व को प्राप्त कर सके थे।' इस प्रकार भाई रतनचन्द्रजी के गुरुवर्य परमपूज्य आचार्यश्री के मन्तव्य से ही यह सिद्ध हो जाता है कि मुक्ति के लिए पूर्वविद् होना आवश्यक नहीं है। ऐसी स्थिति में यह सूत्र स्त्रीमुक्ति का निषेधक सिद्ध नहीं होता है।
अपने पक्ष के बचाव में प्रो. रतनचंद्रजी यह लिखते हैं कि 'यदि क्षपक श्रेणी का विशिष्ट परिणाम होने पर श्रुतज्ञानावरण के विशिष्ट क्षयोपशम से स्त्री को शाब्दिक ज्ञान हुए बिना द्वादशांग का अर्थबोध हो जाता है, तो पुरुष के लिए द्वादशांग के अध्ययन की अनिवार्यता असिद्ध हो जाती है।' इसका उत्तर भी आचार्य श्री के पूर्वोक्त मन्तव्य से ही मिल जाता है। शब्दश: द्वादशांग का अध्ययन मुक्ति के लिए कभी आवश्यक नहीं रहा है। गजसुकमाल मुनि का कथानक दोनों परम्पराओं में मान्य है, उन्होंने जिस दिन पूर्वाह्न में दीक्षा ली उसी दिन अपराह्न में ध्यान-साधना हेतु वे श्मशान में चले गए और उसी रात्रि में कैवल्य को प्राप्त कर मुक्त हो गए। उन्होंने कब द्वादशांग का अध्ययन किया होगा? अतः श्वेताम्बर - दिगम्बर किसी भी परम्परा में यह मान्यता नहीं रही है कि मुक्ति के लिए द्वादशांग
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