________________
११० :
श्रमण, वर्ष ५९, अंक २/अप्रैल-जून २००८
श्वेताम्बर या यापनीय से भिन्न हैं अर्थात् नवदिगम्बर हैं। किन्तु हरिवंशपुराण के पैसठवें सर्ग में स्पष्ट रूप से अन्यतैर्थिकमुक्ति का उल्लेख है। अन्यतैर्थिकमुक्ति श्वेताम्बरों और यापनीयों को ही मान्य है, दिगम्बरों को नहीं। अत: हरिवंशपुराण स्पष्टत: यापनीय सिद्ध होता है उसमें स्पष्ट रूप से तापस रूप में प्रव्रजित नारद की मुक्ति का उल्लेख किया गया है। यदि डॉ० नागराजैय्या यह माने कि नवदिगम्बर तापस वेशधारी अन्य तैर्थिकों की मुक्ति को मानते थे, तो फिर उन्हें यह भी मानना होगा कि वे प्रकारान्तर से सचेल स्त्रीमुक्ति एवं गृहीमुक्ति को भी स्वीकार करते थे और ऐसी स्थिति में नवदिगम्बर और यापनीय में कोई अंतर नहीं रह जाएगा। वस्तुत: जिन्हें वे नवदिगम्बर कहना चाहते हैं, वे यापनीय ही हैं। यापनीय श्वेताम्बर नहीं हैं, वे दिगम्बर ही हैं, क्योंकि वे भी मनि के अचेलकत्व के दिगम्बरों की तरह ही समर्थक हैं। यापनीय दिगम्बरों की एक शाखा तो हो सकते हैं, किन्तु वे दिगम्बरों से पृथक् नहीं हैं, क्योंकि इस सम्प्रदाय के उद्भव, विकास और विलय सभी तो दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध है। आज उनका साहित्य, मन्दिर और मूर्तियाँ सभी तो उत्तराधिकार के रूप में दिगम्बर सम्प्रदाय को प्राप्त है। मुझे तो आश्चर्य यही है कि आज हम यापनीयों से नाक-भौं क्यों सिकोड़ते हैं और निरर्थक रूप से उनके लिए नवदिगम्बर जैसे नामों की कल्पना करते हैं। केवल अपने मनोसंतोष के लिए यापनीय आचार्य को और उनके साहित्य को नवदिगम्बर कहना कहाँ तक उचित है? क्योंकि जहाँ यापनीय सम्प्रदाय के अनेक साहित्यिक एवं पुरातात्त्विक साक्ष्य हैं, वहाँ नवदिगम्बर का एक भी साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य नहीं है। यदि प्रो० नागराजैय्या की दृष्टि में जिन आचार्यों और उनकी कृतियों को प्रो० उपाध्येजी, पं० नाथूरामजी प्रेमी, डॉ० कुसुम पटोरिया और मैंने यापनीय सिद्ध किया है वे सभी यदि नवदिगम्बर हैं तो फिर यापनीय साहित्य कौन-सा है? यदि नवदिगम्बर और यापनीय एक ही हैं तो 'नवदिगम्बर' शब्द का कोई अर्थ नहीं रह जाता है।
बृहत्कथाकोशकार हरिषेण को भी वे नवदिगम्बर कहते हैं, किन्तु जब हरिषेण बृहत्कथा में अणुव्रतधर गृहस्थ की मुक्ति का उल्लेख करते हैं तो फिर वे यापनीय से भिन्न कैसे हो सकते हैं। रविषेण ने अपनी जो गुरु परम्परा दी है उसमें इन्द्र और दिवाकर यति का उल्लेख किया है, गोम्मटसार की टीका में इन्द्र को श्वेताम्बर आचार्य बताया गया है, किन्तु पं० नाथूरामजी प्रेमी ने यह माना है कि इन्द्र और दिवाकर यति यापनीय थे। यापनीय परम्परा में यति विरुद का प्रयोग विशेष रूप से हुआ है। वे अपने आचार्यों को 'यतिग्राम-अग्रणी' कहते थे। स्वयं शाकटायन को भी यह विरुद दिया गया है। आदरणीय प्रो० नागराजैय्या जी ने मूलसंघ एवं पुन्नाट संघ को दिगम्बर संघ बताया है, किन्तु मैंने अपने ग्रन्थ 'जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में अनेक पुष्ट प्रमाणों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org