Book Title: Sramana 2008 04
Author(s): Shreeprakash Pandey, Vijay Kumar
Publisher: Parshvanath Vidhyashram Varanasi

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Page 232
________________ साहित्य सत्कार : २२७ आगमों की संख्या के विषय में मत वैभिन्यता देखी जाती है। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानकवासी और तेरापंथी आगमों की संख्या ३२ ही स्वीकार करते हैं- अंग-१२, उपांग-१२, मूलसूत्र-४, छेदसूत्र-४ और आवश्यक-१ = ३२ ।। प्रस्तुत ग्रंथ 'जैन आगम दर्शन' के अन्तर्गत लेखिका ने आगमों में वर्णित दार्शनिक तथ्यों का अध्ययन किया है। आगमों की विशाल ज्ञानराशि को एक पुस्तक में प्रस्तुत करना असंभव नहीं है परन्तु बड़ा ही कठिन कार्य है। संभवत: यही कारण है कि लेखिका ने अपने विषय को सीमित करते हुए मुख्य पाँच आगमों- आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग और भगवती को ही अपने अध्ययन का विषय बनाया है। सात अध्यायों में विभक्त इस पुस्तक में प्रथम अध्याय में सभी अध्यायों की संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की गई है। द्वितीय अध्याय आगम साहित्य की रूपरेखा में लेखिका ने आगम साहित्य के ऐतिहासिक़ पक्षों को विद्वतापूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है। इस अध्याय की विशेषता यह है कि लेखिका ने भारतीय विद्वानों के साथ-साथ आगम के विषय में पाश्चात्य विद्वानों के क्या विचार हैं, को भी प्रस्तुत किया है। तृतीय अध्याय में जैन धर्म-दर्शन के तत्त्वमीमांसीय पक्षों का प्रस्तुतीकरण सरल और गवेषणीय है। चतुर्थ अध्याय में आत्ममीमांसा को विवेचित किया गया है। षड्जीवनिकाय की आगम के आधार पर इतनी सूक्ष्मता से विवेचना की गई है कि आत्मा सम्बन्धी जिज्ञासाओं के लिए पाठकों को अन्य जगह भटकने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। पंचम अध्याय का हार्द कर्ममीमांसा है जिसमें कर्म की विविधता, उसके कारण, कर्म का महत्त्व, कर्म और पुनर्जन्म आदि विषयों को विवेचित किया गया है। षष्ठ अध्याय आचारमीमांसा से सम्बन्धित है। आचार जो जैन धर्म-दर्शन का मुख्य आधार है, की लेखिका ने प्रस्तुत पुस्तक में विस्तृत विवेचना की है। आचार का जितना सूक्ष्म विवेचन लेखिका ने किया है वह उनके जैसा आचारमार्ग का पथिक ही कर सकता है। सप्तम अध्याय जो इस पुस्तक का विशिष्ट अध्याय है में आगमों में वर्णित जैनेतर दर्शन को विवेच्य विषय बनाया गया है। इसके अन्तर्गत क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद,विनयवाद,नियतिवाद, कर्मोपचय, सृष्टि की अवधारणा आदि का समालोच्य विवेचन हुआ है। विषय प्रस्तुति का ससन्दर्भ होना पुस्तक की गरिमा को बढ़ाता है। पुस्तक की विशेषता यह है कि आगमों में बिखरे सारगर्भित दार्शनिक तथ्यों को सरल एवं सहज भाषा में एक जगह प्रस्तुत कर लेखिका ने जिज्ञासुओं के लिए सुगम बना दिया है। पुस्तक के अध्ययन से विषय के प्रति लेखिका की सूक्ष्म दृष्टि स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है जिसके लिए वे साधुवाद की पात्र हैं। पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है। डॉ० सुधा जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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