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विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता : जैन साहित्य के सन्दर्भ में : १३७
उनके कथन को मैने अपनी शब्दावली में आगे प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है (देखें - जैन धर्म का मौलिक इतिहास, खण्ड २, पृ० ५४५ - ५४८ )
(१) विक्रम संवत् आज से दो सहस्त्राब्दियों से कुछ अधिक काल से प्रवर्तित है। आखिर इसका प्रवर्तक कोई भी होगा - बिना प्रवर्तक के इसका प्रवर्तन तो सम्भव नहीं है और यदि अनुश्रुति उसे विक्रमादित्य (प्रथम) से जोड़ती है तो उसे पूरी तरह अस्वीकार भी नहीं किया जा सकता है। मेरी दृष्टि में अनुश्रुतियां केवल काल्पनिक नहीं होती हैं।
(२) विक्रमादित्य से सम्बन्धित अनेक कथाएं आज भी जन साधारण में प्रचलित हैं, उनका आखिर कोई भी तो आधार रहा होगा। केवल उन आधारों को खोज न पाने की अपनी अक्षमता के आधार पर उन्हें मिथ्या तो नहीं कहा जा सकता है । जिस इतिहास का इतना बड़ा जनाधार है उसे सर्वथा मिथ्या कहना भी एक दुस्साहस ही होगा।
(३) प्राचीन प्राकृत ग्रन्थ गाथासप्तशती, जिसे विक्रम की प्रथम - द्वितीय शती में सातवाहनवंशी राजा हाल ने संकलित किया था - उसमें विक्रमादित्य की दानशीलता का स्पष्ट उल्लेख है । यह उल्लेख चन्द्रगुप्त (द्वितीय) विक्रमादित्य के सम्बन्ध में या उससे परवर्ती अन्य विक्रमादित्य उपाधिधारी राजा के सम्बन्ध में नहीं हो सकता है, क्योंकि वे इस संकलन से परवर्ती काल में हुए हैं, अतः विक्रम संवत् की प्रथम शती से पूर्व कोई अवन्ती का विक्रमादित्य नामक राजा हुआ है यह मानना होगा। यहां यह भी ज्ञातव्य है कि विक्रमादित्य हाल के किसी पूर्वज सातवाहन वंशी राजा से युद्ध क्षेत्र में आहत होकर मृत्यु को प्राप्त हुए थे। वह गाथा निम्न है
संवाहणसुहस्स तोसिएण देन्तेण तुहकरे लक्खं ।
चलणेण विक्कमाइच्च चरिअ मणुसिक्खिअं तिस्सा।। -गाथासप्तशती ४६७
(४) सातवाहन वंशी राजा हाल के समकालीन गुणाढ्य ने पैशाची प्राकृत में 'बृहत्कथा' की रचना की थी। उसी आधार पर सोमदेवभट्ट ने संस्कृत में 'कथा - सरित्सागर' की रचना की - उसमें भी विक्रमादित्य के विशिष्ट गुणों का उल्लेख है (देखें- लम्बक ६ तरंग १ तथा लम्बक १८ तरंग १ )
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