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१०६ : श्रमण, वर्ष ५९, अंक २ / अप्रैल-जून २००८
सम्प्रदाय' में अनेक प्रमाणों से सिद्ध भी किया है। यद्यपि दिगम्बर विद्वान् प्रायः उसे दिगम्बर या निर्ग्रन्थ संघ से सम्बन्धित करते हैं। उनका यह मत कितना प्रामाणिक है यह विवाद का विषय हो सकता है, किन्तु यहाँ हम इस चर्चा में जाना नहीं चाहते हैं। इस सम्बन्ध में मैंने अपने तर्क अपनी पुस्तक 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में दिए हैं, इच्छुक जन उन्हें वहाँ देख सकते हैं। प्रस्तुत आलेख में इस चर्चा को उठाने का अवकाश नहीं है। जहाँ तक कूर्चकसंघ का प्रश्न है, मुझे श्वेताम्बर परम्परा में कूर्चकगच्छ का उल्लेख मिला है, किन्तु यह उल्लेख एक तो परवर्ती काल का है और दूसरे इसका सम्बन्ध राजस्थान के कुचेरा नामक स्थान से रहा हुआ है, जबकि कूर्चकसंघ का अभिलेख दक्षिण का है और ५वीं शती का है। कूर्चकसंघ और कूर्चकगच्छ में कोई सम्बन्ध रहा हुआ है या नहीं, यह शोध का विषय है।
डॉo हम्पा नागजैय्या ने अपने मत के अनुसार यापनीय, श्वेताम्बर, दिगम्बर और नवदिगम्बर- ऐसे चार सम्प्रदायों का उल्लेख किया है। नवदिगम्बर को दिगम्बर, श्वेताम्बर और यापनीय से भिन्न माना है। साहित्यिक ग्रन्थों का वर्गीकरण कर मात्र यह कहा है कि १. विमलसूरि का रामकथा से सम्बन्धित 'पउमचरियं' यापनीय परम्परा का है, २. शीलांक और हेमचंद्र के रामकथा सम्बन्धी कथानक श्वेताम्बर परम्परा के हैं, ३. जिनसेन और गुणभद्र (८९८) का 'आदिपुराण' तथा पुष्पदन्त (९६५) के रामकथा सम्बन्धी विवरण दिगम्बर परम्परा के हैं तथा ४. रविषेण का 'पद्मपुराण', पुनाट जिनसेन का 'हरिवंश' और हरिषेण की 'वृहत्कथा' - ये कृतियाँ नवदिगम्बर सम्प्रदाय की हैं।
इस सम्बन्ध में मेरी पहली आपत्ति यह है कि क्या रविषेण, पुन्नाट जिनसेन और हरिषेण ने अपनी कृतियों में अपने को या अपनी गुरु परम्परा को दिगम्बर या 'नवदिगम्बर' कहा है?
'क्या 'नवदिगम्बर' का अन्य कोई भी अभिलेखीय या साहित्यिक उल्लेख है? श्वेताम्बर, दिगम्बर (निर्ग्रन्थ) और यापनीय सम्प्रदायों के तो अभिलेखीय और साहित्यिक साक्ष्य हैं, अत: इन्हें तो सम्प्रदाय माना जा सकता है, किन्तु 'नवदिगम्बर' कोई सम्प्रदाय न तो कभी था और न है, अतः उसे किस आधार पर सम्प्रदाय माना जाए? मैं अपनी पुस्तक 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' में इस बात को सुस्पष्ट रूप से सिद्ध कर चुका हूँ कि जहाँ तक उमास्वाति, विमलसूरि तथा सिद्धसेन दिवाकर का प्रश्न है, वे श्वेताम्बर, दिगम्बर एवं यापनीय सम्प्रदायों के स्पष्ट विभाजन के पूर्व के हैं। उनके ग्रंथों में उल्लेखित तथ्य जैनसंघ की ई० सन् प्रथम-द्वितीय शताब्दी की स्थिति
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