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श्रमण, वर्ष ५९, अंक २
अप्रैल-जून २००८
वृष्णिदशा : एक परिचय
जैन धर्म की श्वेताम्बर परम्परा में मान्य अर्धमागधी आगम साहित्य के एक वर्ग उपांग साहित्य में बारहवें उपांग के रूप में 'वृष्णिदशा' का नाम आता है। नन्दीसत्र में जो कालिक और उत्कालिक सूत्रों की सूची दी गई है उसमें उत्कालिक सूत्रों के अन्तर्गत वृष्णिदशा का नामोल्लेख मिलता है। इससे यह तथ्य तो स्पष्ट हो जाता है कि, 'वृष्णिदशा' नामक इस उपांग का अस्तित्व कम से कम नन्दीसूत्र के पूर्व अर्थात् ईसा की पाँचवीं शती के पूर्व था। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि स्थानांगसूत्र में जिन दस दशाओं के उल्लेख हैं उनमें कहीं भी वृष्णिदशा का उल्लेख नहीं है। वृष्णिदशा का सर्वप्रथम उल्लेख नन्दीसूत्र में ही मिलता है। नन्दीसूत्र की चूर्णि (लगभग सातवीं शती) में प्रस्तुत उपांग का नाम 'अन्धकवृष्णिदशा' दिया गया है। मात्र यही नहीं, चूर्णि अन्धक शब्द का अर्थ भी स्पष्ट करती है और उसे पुल के रूप में उल्लेखित करती है। इससे स्पष्ट है कि वृष्णिदशा का पूर्व नाम अन्धक वृष्णिदशा था। कालान्तर में अन्धक शब्द लुप्त हो गया और केवल वृष्णिदशा ऐसा नाम ही शेष रह गया। इसका रचनाकाल ईस्वी सन् की पाँचवी शती से पूर्व है किन्तु इसके रचयिता का कोई उल्लेख नहीं है।
हरिवंशपुराण में 'अन्धकवृष्णि' का उल्लेख मिलता है। उसमें यह बताया गया है कि बलराम, कृष्ण और अरिष्टनेमि का जन्म अन्धकवृष्णि कुल में हुआ था। वहाँ अन्धकवृष्णि को कृष्ण, बलराम और बाइसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि का दादा कहा गया है। अन्धकवृष्णि के समुद्रविजय, वसुदेव आदि दस पुत्र हुए। जहाँ समुद्रविजय से अरिष्टनेमि का जन्म हुआ वहीं वसुदेव के कृष्ण और बलराम नामक पुत्र हुए। हिन्दू परम्परा के हरिवंशपुराण के तैतीसवें अध्याय मे भी यदुवंश की उत्पत्ति का तथा चौतीसवें अध्याय में वृष्णिवंश का उल्लेख मिलता है।
दोनों परम्पराओं के आधार पर इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि अन्धकवृष्णि से ही वृष्णिवंश का प्रारम्भ हुआ। प्रस्तुत उपांग वृष्णिदशा में हमें वृष्णिवंश के निम्न बारह राजकुमारों का उल्लेख मिलता है- १. निषथ २. मातलि ३. वह
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