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श्रमण
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प्राचीन जैन आगमों में राजस्व व्यवस्था
डॉ० अनिल कुमार सिंह* राजस्व की विचारधारा को लगभग उतना ही प्राचीन कहा जा सकता है जितना प्राचीन स्वयं राज्य' का अस्तित्व है। भारत, मिस्र, भूटान आदि प्राचीन देशों में राजस्व के नियमों व नीतियों का प्रादुर्भाव हो गया था। प्राचीन सभ्यताओं की राजस्व प्रणालियाँ प्रमुखतः पराजित देशों से वसूल किये गये करों पर निर्भर करती थीं। इसके अलावा, अप्रत्यक्ष कर जैसे भूमि हस्तान्तरणों तथा व्यापारिक सौदों पर कर भी लगाए जाते थे। रोम साम्राज्य में उत्तराधिकारी कर तथा सामान्य बिक्री कर भी लगाया जाता था।
भारत में 'मनुस्मृति' तथा कौटिल्य के 'अर्थशास्त्र' में करारोपण तथा राजकीय व्यय की व्यवस्था के बारे में सिद्धान्तों का विवरण मिलता है। ग्रीक युग की छोटी पुस्तक 'Athenian Revenues' जिसके लेखक जेनोफे थे, उल्लेखनीय है। प्लेटो तथा अरस्तू के लेखों में भी राजकोषीय विषयों पर टिप्पणियाँ प्राप्त होती हैं। रोम के इतिहासकारों के लेखों में भी रोमन राजकोषीय प्रणालियों का विश्लेषण तथा उनकी समालोचना मिलती है।
डाल्टन' के अनुसार “राजस्व सार्वजनिक अधिकारियों के आय तथा व्यय एवं इनके पारस्परिक समन्वय का अध्ययन है।" सामान्य रूप से हम कह सकते हैं कि राजस्व विभिन्न सरकारों की मौद्रिक आय-व्यय से सम्बन्धित सिद्धान्तों व समस्याओं का अध्ययन है।
__ मूलत: जैसा कि डाल्टन ने बताया है राजस्व को दो भागों में बाँटा जा सकता है : सार्वजनिक आय तथा सार्वजनिक व्यय। परन्तु अध्ययन में स्पष्टता लाने के दृष्टिकोण से राजस्व को पाँच विभागों में बाँटना अधिक उपयुक्त समझा जाता है - १. सार्वजनिक व्यय, २. सार्वजनिक आय, ३. सार्वजनिक ऋण, ४. वित्तीय प्रशासन, ५. राजकोषीय नीति।
प्रारम्भ में राज्य एक पुलिस राज्य के ही रूप में हुआ करते थे, जिनका प्रमुख कार्य आन्तरिक कानून व्यवस्था को बनाए रखना तथा बाहरी आक्रमणों से देश की रक्षा करना था। राज्य का अस्तित्व केवल सुरक्षा बनाए रखने के लिए था।
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