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पाण्डवपुराण वि० संवत् १६०८ में समाप्त हुआ है । अतएव इसके पहलेके रचे हुए ग्रन्योंके ही नाम इस प्रशस्तिसे मालूम हो सकते हैं । पाण्डवपुराणके बाद भी उन्होंने अनेक प्रन्थोंकी रचना की होगी और इसके प्रमाणमें हम दो प्रन्योको पेश कर सकते हैं--क तो स्वाभिकार्तिकेयानुपेक्षाटीमा जो संपत् १६१३ में समाप्त हुई है और दूसरा करकण्ड्डुचरित्र जो संवत् १६११ मैं बना हैं । तलाश करनेसे इस तरह के और भी कई प्रन्योंका पता लगना संभव है।
४-श्रीयोगीन्द्रदेव । इस संग्रहके योगसार, निजात्मानक और अमृताशीति नामक ग्रन्थों के कर्ता आचार्य योगीन्द्र देव हैं। इनमें से पहला अपभ्रंशमें, दूसरा प्राकृतमें और तीसरा संस्कृत में है। परमात्मप्रकाशके कत्ती भी वहीं योगीन्द्रदेव हैं । योगसार और परमात्मप्रकाशकी रचना लगभग एक ही बैंगकी है, दोनों में प्रायः दोहा छन्दका उपयोग किया गया है और मंगलाचरण दोनोंका लगभग एकसा है। परमात्मप्रकाशका मंगलाचरण देखिए:--
जे जाया झाणग्गियाए, कम्मकलंक डहेवि ।
मिश्चणिरंजणणाणमय, ते परमप्प णवेवि ॥ १ योगमारमें भी इसीको छाया है:
णिम्मलझाणपरिडिया, कम्मकलंक डहेचि ।
अप्पा लद्धउ जेण परु, ते परमप णवधि ॥ २ इससे इसमें तो कोई भी सन्देह नहीं हो सकता कि इन दोनों के कर्ता एक ही योगीन्द्र देव हैं । निजात्माष्टक और अमृताशीतिके का भी ये ही आन पड़ते है। इन दोनोंका विषय भी योगीन्द्र देवका प्यारा योग तथा अध्यारम है। "अध्यात्मसन्दोह' नामका ग्रन्थ भी इन्हीं का बनाया हुआ कहा जाता है; परन्तु अभी तक वह कहीं देखनेमें नहीं आया।
श्रीपद्मप्रभमलधारदेवकी नियमसार टीका (पृ. ५६ ) में 'तथाचोतं श्रीयोगीन्द्रदेवैः' कहकर 'मुक्क्यंगनालिमपुनर्भवसौख्यमूलं' आदि पद्य उद्धृत किया है जो 'अमृताशीति' में नहीं है। संभव है कि यह पूर्वोक अभ्यात्मसन्दोहका या उनके अन्य किसी अन्यका हो।
पवा जाता।