Book Title: Siddhantasaradisangrah
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: M D Granthamala Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ २८ * योगीन्द्रदेवैरप्युक्तं णधि उप्पाइ णधि मरइ, बंध ण मोक्नु करे। जिउ परमत्थे जोइया, जिणधर पउ भणेइ ॥" यद्यपि जयसेनसूरिका निश्चित समय मालूम नहीं है, परन्तु उन्होंकी बनाई हुई पंचास्तिकायस्तिकी एक प्रति विक्रम संवत् १३६९ की लिखो हुई है। यदि यह प्रति प्रन्य बनने के कमसे कम सौ वर्ष पोछे भी लिखी गई होगी तो जयसेनाचार्यको विक्रमकी तेरहवीं शतब्दिमें मानना चाहिए और तम योगोन्द्रा• सात सम दे ताइके म निदिन ऐसा हैं। नियमसारकी श्रीपद्मप्रभमलधारिदेवकृत टी कामें भी योगीन्द्र देवके कुछ पथ उद्धृत किये गये हैं। इससे मालूम होता है कि वे पद्मप्रभदेवसे पहले हो गये हैं और पद्मप्रभने पाँचवें अध्यायको टीकाके अन्त में श्रीवोरनन्दि मुनिको नमः स्कार किया है: यस्य प्रतिक्रमणमेच सदा मुमुक्षोनास्त्यवतिक्रमणमप्यणुमात्रमुच्चैः । तस्मै नमः सकल संयमभूषणाय श्रीवीरनन्दिमुनिनामधराय नित्यं ॥ इससे मालूम होता है कि श्रीवीरनन्दि मुनि पद्मप्रभदेव के कोई समसामयिक आचार्य हैं और उन्हें के पूज्य दृष्टिसे देखते हैं। आश्चर्य नहीं कि वे उनके गुरु ही हो । टीकाके प्रारंभमें भी उन्होंने 'तद्विद्याढयं धीरनन्दि वृत्तीन्द्रम्' कहकर नमस्कार किया है। यदि ये वीरनन्दि आचारसारके कता वारनन्दि ही हों और हमारा अनुमान है कि वे ही होंगे, तो इससे पद्मप्रभ का समय विक्रम संवत् १२११ के लगभग निश्चित हो जाता है । क्यों कि बीरनन्दिने आवार• सारके स्वकृत कनड़ी व्याख्यानमें उसकी रचनाका समय शक संवत् १०७६ लिखा है. " स्वस्तिश्रीमन्मेषचन्द्रविद्यदेवर श्रीपादप्रसादासादितात्मप्रभावसमस्तविद्याप्रमावसकलदिवर्तिकीर्तिश्रीमद्वारनन्दिसैद्धान्तिकचक्रवर्तिगलु शकचर्ष १०७६ श्रीमुखनामसंवत्सरे ज्योष्ठ

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 349