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पाषाणोत्स्फुटितं तोयं घटीयंत्रेण ताडितं । सद्यः सन्तप्तवापीनां प्रासुकं जलमुच्यते ॥ ६३ ॥ देवर्षीणां प्रशौचाय स्नानाय च गृहार्थिनां ।
अमासुकं परं वारि महातीर्थजमप्यदः ॥ ६॥ इस विधानसे भी हम यही अनुमान करते हैं कि यह प्रन्य आधुनिक है और भगवती आराधनाके कत्तीका तो कदापि नहीं है।
हस प्रन्थको विचारपूर्वक पढ़नेसे इस तरहको और भी अनेक बातें मालूम हो सकती हैं।
इस प्रन्थका ६५ वाँ लोक यशस्तिलक चम्पूके उपासकाध्ययनके एक लोकसे मिलकुल मिलता जुलता हुआ हैं और ऐसा मालूम होता है कि उसी परसे लिया गया है । चम्पूका बह श्लोक इस प्रकार है:--
सर्वमेव हि जनानां प्रमाणं लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यवहानिर्न यत्र न अतदपाणम यशस्तिलक शक संवत् ८८१ ( वि० संवत् १०१६ ) में समाप्त हुआ है। इस ग्रन्थ में कोई खास विशेषता नहीं है । मामूली उपदेशरूप ग्रन्थ है जिसमें श्रावकाचारसम्बन्धी प्रकीर्णक बातें लिखी गई है। एक महान आचायकी कृतिके योग्य इसमें कुछ भी नहीं है।
७-श्रीमाधनन्दि योगीन्द्र। थे 'शास्त्र सारसमुच्चय ' नामक सूत्रग्रन्थके का है। इस नामके भी कई आचार्य हो गये हैं, इस कारण नहीं कहा जा सकता कि इसके की कौनसे माघनन्दि हैं। कनाटक-कवि-चरित्रके अनुसार एक माचनन्दिका समय ईस्वी सन् १२६० (वि. संवत १३१७ ) है और उन्होंने इस शास्त्र सारसमुच्चयपर एक कनड़ी टीका लिखी है तथा माघनन्दि-श्रावकाचार के कर्ता भी यही हैं। इससे मालूम होता है कि शास्त्रसारसमुच्चय (मूल) के कप्ता इनसे पहले हुए हैं और उनका समय भी विक्रमकी चौदहवीं शताब्दिसे पहले समझना चाहिए ।
मद्रासकी ओरियण्टल लायब्रेरोमें 'प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण' या 'जिनसंहिता' ना. मका एक अन्य है। उसके प्रारंभमें लिखा है: