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संस्कृतं' ( मेधावीके द्वारा संस्कार की हुई) विशेषण दिया है। संभवतः ये वहीं पं. मेधावी हैं जो धर्मसंप्रहश्रावकाचारके कर्ता हैं और जिन्होंने 'मूलाबारकी
सुनन्दिवृत्ति, त्रिलोकप्रज्ञप्ति' आदि ग्रन्थों के अन्तमें उक प्रन्योंके दान करने वालोंकी बड़ी बड़ी प्रशस्तियाँ जोड़ी हैं। यदि हमारा यह अनुमान ठीक है, तो यह स्तोत्र १६ वीं शताब्दिका बना हुआ है। क्योंकि पं० मेधावीने उक्त प्रशस्तियों वि० सं० १५१६ और १५९९ में रची हैं।*
मेधावीके समयमें एक गुणभद नामके आचार्य थे भी, इसका पता जैनसि. द्वान्तभवन आराके 'मानार्णव' नामक ग्रन्थकी लेखक-प्रशस्तिसे लगता है। यथा---
"संचत १५२१ वर्षे आषाढ़ सुदि सोमवासरे श्रीगोपाचलदुर्गे तोमरवंशे राजाधिराजश्रीकीर्तिसिंहराज्यप्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघ माथुरान्वये पुष्करमणे भ० श्रीगुणकीर्तिदेवास्तत्प? भ. श्रीयश:कीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीमलयकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीगुणभद्रदेवास्तदानाये गर्गगोत्रे......।"
इससे मालूम होता है कि वि० सं० १५२१ में ग्वालियरमें गुणभवनामके आ. बार्य थे जो कालासंघ-माधुराम्यय और पुष्करमणकी गद्दीपर आरूढ़ थे। बहुत संभव है कि चित्रबन्धस्तोत्रके कर्ता यही हो और इन्हीं की रचनाको उसी सम. यमें होनेवाले पं० मेधावीने संस्कृत किया हो।
११-श्री पद्मनभदेव । पार्श्वनाथस्तोत्रकी अन्तिम पंकिंमें यद्यपि उसे 'श्रीपश्चनन्दिमुनिविरचितं' लिखा है; परन्तु अन्तिम लोकके 'श्रीपानभदेवनिर्मितमिदं स्तोत्रं जगभंगलं' पदसे यह स्पष्ट है कि उसके कर्ता श्रीपद्मप्रभदेव हैं । उन्होंने पद्मनन्दिमुनिका केवल उल्लेख मात्र किया है और कहा है कि वे सके, व्याकरण, नाटक, और काव्यक कौशलमें विख्यात थे। परन्तु उससे यह नहीं मालूम होता है कि उनका उल्लेख क्यों किया गया और उनसे उनका क्या सम्बन्ध था। इससे
* देखो जैनहितैषी भाग १५, अंक ३-४ । पं. मेधावीका बनाया हुआ धर्मसंप्रहधावकाचार मामका ग्रन्थ भी है जो वि. सैक्त १५४१ में समाप्त