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धनंजयाशाघरवाग्भटामां
धत्ते पदं सम्प्रति वादिराजः ! खाण्डिल्यवंशोझवपोमसूनुः
__जिनोक्तिपीयूषसुतगात्रः ॥ प्रशस्तिके एक और श्लोक में उन्होंने अपनी और वाम्मकी समानता बड़ी खूबसूरतीसे दिखलाई है:
श्रीराजसिंहनृपतिर्जयसिंह पव
श्रीतक्षकाख्यनगरी अणहिलत्तुल्या । श्रीवादिराजविबुधोऽपरवाग्भटोऽयं
श्रीसूत्रबृत्तिरिह नन्दतु चार्कचन्द्रम् ॥ अर्थात् इमारे राजा राजसिंह जयसिंह ( वाग्भटकवि जिस राजाके मंत्री थे) ही हैं और यह तक्षक नगरी अणहिलयाई ( जयसिंहकी राजधानी ) के तुल्य है और वादिराज दूसरा वाग्भट है 1 इनके बनाये हुए और किसी ग्रन्थका हमें पता नहीं है।
९-श्री जयानन्दसरि । 'सर्वज्ञस्तवन' और उसकी टीका इन दोनों के कत्ती जयानन्दसूरि श्वेताम्बर आचार्य मालूम होते हैं। श्वेताम्बर-जैनकान्फरेन्स द्वारा प्रकाशित जैनग्रन्थावली (पृष्ठ २८०) के अनुसार इसका नाम 'देवाः प्रभो स्तोत्र' भी हैं। क्योंकि इसका प्रारंभ इन्हीं शब्दोंसे होता है। पाटणके श्वेताम्बर-भंडार में भी इसकी एक प्रति है । ये सोमतिलकसूरिके शिष्य थे और विक्रमकी १५ वीं शताब्दिमें हुए हैं। इनके बनाये हुए और भी कई ग्रन्थ है। हेमचन्द्र के व्याकरणपर इनकी एक वृति भी है। इस स्तोत्र-टीका जो 'व्याकरणसूत्र' जगह जगह आते हैं, वे भी हेमचन्द्र ( श्वेताम्बराचार्य ) के ही मालूम होते हैं ।
१०-श्री गुणभद्र । चित्रबन्धस्तोत्रके का गुणभद्र या गुणभद्रकीर्ति नामके कोई आचार्य मालूम होते हैं । परन्तु यह निश्चय है कि ये भगजिनसेनके शिष्य गुणभद्राचार्य अतिरिफ कोई दूसरे ही है। इस स्तोत्रके २५ वें श्लोकमैं इस स्तुतिको 'मेधाविना