Book Title: Siddhantasaradisangrah
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: M D Granthamala Samiti

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Page 9
________________ किसी समय यह पद छोय है । परन्तु यह निश्चय है कि महारक पद छोड़नेके बाद भी ये बहुत समयतक जीवित रहे हैं। भट्टारक शुभचन्द्र भी बहुत बड़े विद्वान् हुए हैं । त्रिविधविद्याधर (शब्दागम, युक्त्यागम और परमागमके ज्ञाता ) और पदभाषाकविचक्रवती ये उनकी पदवियाँ थी । भास्करमें प्रकाशित पटावली में लिखा है कि वे "प्रमाणपरीक्षा, पन्नपरीक्षा, पुष्पपरीक्षा(3), परीक्षामुख, प्रमाणनिर्णय, न्यायमकरंद, न्यायकुमुदचन्द्रोदय न्यायविनिश्चय, श्लोकवार्तिक, राजवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तड, आप्तमीमांसा, अष्टसहनी, चिन्तामणिमीमांसाविवरण, वाचस्पतितत्वको मुदी आदि कर्कश सर्कग्रन्थोंके, जैनेन्द्र, शाकटायन, ऐन्द्र, पाणिनि, कलाप आदि व्याकरणप्रन्थोके, 'त्रलोस्यसार, गोम्मटसार, लब्धिसार, क्षपणासार, त्रिलोकप्रज्ञप्ति, सुविज्ञप्ति ( १ ), अध्यामाटसहखी (?) और छन्दोलंकार आदि शास्त्र समुद्रकि पारगामी थे। उन्होंने अनेक देशों में विहार किया था, अनेक नियार्थियोंका वे पालन करते थे, उनकी सभामें अनेक बिबन रहते थे, गौड, कलिंग, कर्णाट, तौलव, पूर्व, गुर्जर, मालप, आदि देशोंके वादियों को उन्होंने पराजित किया था और अपने तथा अन्य धर्मोंने ने म भार लाता थे।" म० शुभचन्दजी के बनाये हुए अनेक ग्रन्थ हैं और प्रायः उन सभीको अन्तः प्रशस्तियों में उन्होंने अपनी गुरुपरम्पसका परिचय दिया है । स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षाटीकाकी प्रशस्ति हम इसी लेख में पहले उद्धृत कर चुके हैं। पाण्डवपुरापकी प्रशस्ति भी हमारे पास है । परन्तु यहाँ इम उसके उतने ही अंशको प्रकाशित करते हैं जिसमें उनकी तमाम प्रन्यरचनाओंका उल्लेख है: चन्द्रनाथचरितं चरितार्थ पद्मनाभचरितं शुभचन्द्र। मन्मथस्य महिमानमतन्द्रो जांधकस्य चरितं च चकार ॥ ७२ चन्दनायाः कथा येन दृन्धा नान्वीश्वरी तथा । आशाधरकृताचार्या(चोयाः वृत्तिः सवत्तिशालिनी ॥ ७३ त्रिंशचतुर्विंशतिपूजनं च सद्वत्तसिद्धार्चनमव्यधत्त । सारस्वतीयार्चनमत्र शुद्धं चिन्तामणीयार्चनमुचरिष्णुः || wa श्रीकर्मदाह विधिवन्धुरसिद्धसेवां नानागुणौघगणनाबसमनं च । श्रीपार्श्वनाथवरकाव्यमुपञ्जिकां च यः संचकार शुभचन्द्र यतीन्द्र

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