Book Title: Siddhantasaradisangrah Author(s): Pannalal Soni Publisher: M D Granthamala Samiti View full book textPage 7
________________ लागाँको उभय माग ( सागार अमगार ! ) दिखलाये, नमियाढ़ ( निमार !) देशमें जैनधर्मकी प्रभावना की, रग राटहडीबटी नागर चाल (?) आदि जनपदमि प्रतियोधके निमित्त विहार किया, भैरव नामक राजाने उनकी भक्ति को, इन्द्रराजाने चरभा पूजे, राजाधिराज देवराजने चरणोंकी आराधना की, जिनधर्मके आरामक भूदिलित, मा , योगासरा, मान, पाण्डुराय आदि राजाभोंने चरण पूजे और उन्होंने अनेक तीर्थोंकी यात्रायें की । ब्याकरण-छन्दअलंकार--साहित्य-तक-श्रागम-अध्यात्म आदि शास्त्ररूपी कमलोपर विहार करने के लिए वे राजहंस थे और शुद्ध यामामृतपानको उन्हें लालसा थो।" इस कवित्वपूर्ण वर्णनसे शानभूषण महारकी महत्ताका बहुत कुछ पता लगता है । इसमें सन्देह नहीं कि वे अपने समयके बहुत ही प्रसिद्ध, प्रनिणित और विद्वान् आवार्य थे। भ० ज्ञान भूषण के सत्वज्ञानतरंगिणी और सिद्धान्तसार-भाष्य ये दो अंध मुद्रित हो चुके हैं । परमार्थोपदेश शीघ्र ही प्रकाशित होगा। इनके सिवाय नेमिनिवीपकाध्यकी पञ्जिकाटीका, पचास्तिकायीका, दशलक्षणोद्यापन, आदीवर-फाग, भकामरोयापन और सरस्वतीपूजा * इन अन्धोंका भी ज्ञान भूषणके नामसे उल्लेख मिलता है। संभव है कि इनमें अन्य किसी शानभूषणके ग्रंथ भी शामिल हो । * 'गोम्मटसाटीका' को भी कुछ लोगों ने ज्ञानभूषणकृत मान रक्खा है। परंतु यह भूल हैं । २६ अगस्त १९१५ के जैनमित्रमें इस टीकाकी जो प्रशस्ति प्रकाशित हुई हैं, उससे मालूम होता है कि इसके कती बे नेमिचन्द्र हैं जिन्होंने मानभूषणसे दीक्षा ली थी, भवारक प्रभाचन्द्र ने जिन्हें आचार्यपद पर बिठाया था, दक्षिण देशके सुप्रसिद्ध भाचार्य मुनिचन्द्र के पास जिन्होंने सिद्धान्त पड़े थे, विशालकीर्तने जिन्हें टीकारचनामें सहायता दी थी और जो लालान्त्रमचारीके आप्रदश गुजरातसे आकर वित्रकूट (चित्तौर) में जिनदासशाहके बनाये हुए पाश्र्वनाथ-मन्दिरमें रहे थे। यह टीका वीरनिर्वाण संवत् २१४५ में समाप्त हुई है। गोम्मटसारके ऋत्तीक मतसे २१७७ में विक्रम संवत् (२१७७-६०५८ ५५७१+१३५) १७०७ पड़ता है, अतएव उक्त नेमिचन्दके मुरू ज्ञानभूषण भी कोई दूसरे ही ज्ञानभूषण हैं, जो सिक्षान्तसार भाष्य के कतासे मौ सवा सौ वर्ष बाद हुए है।Page Navigation
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