Book Title: Shrutsagar 2016 10 Volume 03 05
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba

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Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ कोई उल्लेख नहीं मिलता है। विविध ग्रन्थों व हस्तप्रतों में बीसवीं शताब्दी के अमृतसूरि नामक कई विद्वानों का नामोल्लेख मिलता है, लेकिन इसके आधार पर इस कृति के कर्ता के गुरु अथवा गच्छपरम्परा का निर्धारण कर पाना मुश्किल है। अतः यहाँ कर्ता परिचय में सिर्फ इस कृति में प्राप्त सूचनाओं के आधार पर इतना ही कहा जा सकता है। हस्तप्रत परिचय : यह प्रत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा के ग्रन्थभण्डार में प्रत संख्या ५२६५२ के रूप में दर्ज है। इस हस्तप्रत में कुल दो पत्र हैं, जिनमें दोनों ओर कृति लिखी हुई है। इसकी लिपि देवनागरी है। ___ हालाँकि प्रत के अन्त में प्रतिलेखक ने अपना नामोल्लेख, रचनास्थल अथवा लेखनसंवत् आदि के विषय में कुछ नहीं लिखा है। लेकिन इसकी लिपि तथा कागज को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह प्रत लगभग सौ-सवासौ वर्ष प्राचीन है। ___इसके आधार पर इसे कर्ता के समकालीन लिखी हुई प्रत कहा जा सकता है। यह आदर्श प्रत भी हो सकती है और शायद इसीलिए इस प्रत के अन्त में प्रतिलेखन पुष्पिका नहीं लिखी गई हो। संभव है कि कृति के अन्त में कर्ता ने रचनाप्रशस्ति में जो रचनासंवत् आदि का उल्लेख किया है उसी में प्रतिलेखन पुष्पिका का समावेश भी कर लिया गया हो। __ इस प्रत के प्रत्येक पत्र में ग्यारह पंक्तियाँ लिखी हुई मिलती हैं, तथा अन्तिम पत्र पर जहाँ कृति पूर्ण हुई है वहाँ आठ पंक्तियाँ लिखी हैं। प्रत्येक पंक्ति में लगभग बत्तीस से पैंतीस अक्षर लिखे गये हैं। कई स्थानों पर पाठों को सुधारा भी गया है। इस प्रत में पाठ-सुधार हेतु दो प्रकार की परम्परा देखने को मिलती हैएक तो सुधारे हुए पाठों को प्रत के हाँसिया-क्षेत्र में लिखकर सुधार करना तथा दूसरी परंपरा यह है कि जिस स्थान पर पाठ सुधारना हो, वहीं हंसपाद, काकपाद आदि चिह्नों का प्रयोग कर उसी स्थान पर ऊपर की ओर सुधारे हुए अक्षर अथवा शब्द को लिख देना । इस प्रत में दोनों ही परम्पराओं का अनुसरण For Private and Personal Use Only

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