________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
श्रुतसागर
अक्टूबर-२०१६ गुजराती हस्तप्रतों की सूचि भी ई. स.१९७८ में पंडित श्री दलसुखभाई मालवणिया व श्री नगीनभाई जे. शाह के प्रधानसंपादकत्व में प्रकाशित हुई है।
ला. द. भा. सं. वि. हस्तप्रतसंग्रह की हस्तप्रतों की सूचि का प्रकाशन २ भागों में प्रधानसंपादक डॉ. जितेन्द्र बी. शाह द्वारा १३७ व १३८वें ग्रंथांकों के रूप में ई. स. २००३ में प्रकाशित हुआ, जो कि शोधाकांक्षियों के लिए उनके शोधकार्य में बहुत उपयोगी हैं। ___ क्षमाश्रमण श्री जिनभद्रगणि (विक्रमसंवत् छठी शताब्दी) विरचित विशेषावश्यकभाष्य (आवश्यकसूत्र की प्राकृत नियुक्ति के सामायिक अध्ययन का भाष्य) पर स्वोपज्ञ संस्कृत टीका का ३ भागों में प्रथमादर्श प्रकाशन हुआ, जो कि जैन श्रमणवृन्द व विद्वत्समाज के लिए उपयोगी प्रकाशन है।
वाचक श्री जिनमाणिक्य गणि प्रणीत रत्नाकरावतारिकाद्यश्लोकशतार्थी जिसमें जिनमाणिक्यगणिद्वारा प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारकीरत्नाकरावतारिका टीका के आद्यश्लोक की १०० विभिन्न अर्थ सहित शतार्थीव्याख्या के रूप में रचना की गई है। उसकी समीक्षित आवृत्ति का संपादन पंडित बेचरदास जे. दोशी के प्रधानसम्पादकत्व में ई. स.१९६७ में किया गया। __ वागडगच्छीय श्रीचंद्रसूरिशिष्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरिकृत अपभ्रंशभाषा में निबद्ध २२वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथजी के ९ भवों का चरित्रात्मक काव्य नेमिनाहचरिउ जिसकी रचना वि.सं.१२१६में की गई है, यह ग्रंथ ९ अध्यायों में विभक्त है तथा गाथाप्रमाण- ८००० प्रायः है, इसका २ भागों में श्री हरिवल्लभ सी. भायाणी व श्री मधुसूदन सी. मोदी द्वारा ई. स.१९७०-७१ में समीक्षित पाठ के रूप में प्रथम संपादन किया गया।
तपागच्छीय महोपाध्याय श्री धर्महंसगणि शिष्य वाचकेन्द्र श्री इन्द्रहंसगणि प्रणीत भुवनभानुकेवलि चरिय जिसकी रचना वि.सं.१५५४ में की गई है, जिसमें गाथा-२१०० हैं और ग्रंथाग्र-२५६० है मुनिश्री रमणीकविजयजी द्वारा संपादित ई. स.१९७६ में समीक्षित आवृत्ति का प्रकाशन किया गया है।
आचार्य श्री वर्धमानसूरिकृत प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के जीवन पर प्राकृत रचनाओं में विशालता की अपेक्षा सर्वप्रथम 'जुगाइजिणिंदचरिय'
For Private and Personal Use Only