Book Title: Shrutsagar 2016 10 Volume 03 05
Author(s): Hiren K Doshi
Publisher: Acharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10000000000000000000000 RNI:GUJMUL/2014/66126 bloolcololol ISSN 2454-3705 श्रुतसागर | श्रुतसागर Calc SHRUTSAGAR (MONTHLY) Oct-2016, Volume : 03, Issue : 5, Annual Subscription Rs. 150/- Price Per copy Rs. 15/ EDITOR : Hiren Kishor bhai Doshi GOGOO cecececca BOOK-POST / PRINTED MATTER 0000000000000000 । विश्वकल्याणकर श्री गंगठ्या प्रमुख नमन ।। आम-जागरण कामहापव: भव्य चातमास राष्ट्रसंत परम श्रद्धेय आचार्यप्रवर श्री पग्नसागरसूरीश्वरजी महाराजा आदि सति पदस्थ व श्रमण-श्रमणी वृंद श्री पुष्पदंत स्वतावर मूर्तिपूजक जैन संध-सेटेलाईट, अहमदाबाद तर श्री गुरवे नमः। सद्गुरु शरणमम् ॥ पारसरणगा। स्वाध्याय प्रेमी सद्गत प. पू. मुनिराजश्री पद्मरत्नसागरजी म.सा. की स्मृति में त्रिदिवसीय महोत्सव प्रसंग पर श्रद्धासुमन अर्पण करते हुए पू. गुरुभगवंतश्री एवं श्रमणवृंद 13 Calcolo 2003 Bicicio । PORNO ciciccicaccola i slasiaid stololiciolocal 0 6 आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर काळidiool@@@@lalalalalalalalalalala For Private and Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra दीप प्रागट्य करते हुए महानुभाव COTOCOCO MU H www.kobatirth.org For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir स्वाध्याय प्रेमी सद्गत प. पू. मुनिराजश्री | पद्मरत्नसागरजी म.सा. श्रद्धासुमन अर्पण करते हुए भक्तजन Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir RNI : GUJMUL/2014/66126 ISSN 2454-3705 (आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर का मुखपत्र) श्रूतसागर श्रुतसागर SHRUTSAGAR (Monthly) वर्ष-३, अंक-५, कुल अंक-२९, अक्टूबर-२०१६ Year-3, Issue-5, Total Issue-29,October-2016 वार्षिक सदस्यता शुल्क-रु. १५०/- * Yearly Subscription - Rs.150/अंक शुल्क - रु. १५/- * Issue per Copy Rs. 15/ आशीर्वाद राष्ट्रसंत प. पू. आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. * संपादक* * सह संपादक* *संपादन निर्देशक * हिरेन किशोरभाई दोशी डॉ. उत्तमसिंह श्री गजेन्द्रभाई पढियार एवं ज्ञानमंदिर परिवार १५ अक्टूबर, २०१६, वि. सं. २०७२, आश्विन-शुक्ल-१४ आराधका का कन्ध. र जैन महावीर बताया अमृतं त विद्या प्रकाशक आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर (जैन व प्राच्यविद्या शोध-संस्थान एवं ग्रन्थालय) श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र कोबा, गांधीनगर-३८२००७ फोन नं. (079) 23276204, 205, 252 फैक्स : (079) 23276249, वॉट्स-एप 7575001081 Website : www.kobatirth.org Email : gyanmandir@kobatirth.org For Private and Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अनुक्रम डॉ. उत्तमसिंह आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी 4 Acharya Padmasagarsuri 5 डॉ. उत्तमसिंह 1 संपादकीय 2 गुरुवाणी 3 Beyond Doubt 4 नवपद स्तवन 5 ब्राह्मी लिपि में आदिनाथ वंदना लालभाई दलपतभाई ग्रन्थमाला 7 કેટલાંક મહત્ત્વનાં ફરમાનપત્રો समाचार सार किरीट के. शाह भाविनकुमार के. पंड्या મુનિશ્રી ન્યાયવિજયજી गजेन्द्र पढियार 32 * प्राप्तिस्थान* आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर तीन बंगला, टोलकनगर, हॉटल हेरीटेज़ की गली में, पालडी, अहमदाबाद - ३८०००७, फोन नं. (०७९) २६५८२३५५ *सोजन्य प. पू. मुनिश्री पुनितपद्मसागरजी म. सा. की प्रेरणा से पूज्य मुनिप्रवर श्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. के संयम जीवन की पुण्यस्मृति में __कडी निवासी मातुश्री हसुमतीबहन सुरेन्द्रभाई संघवी परिवार श्री हसमुखभाई शांतिलाल संघवी राजेश-मुकेश संघवी * सीमाबहन कमलेशभाई शाह ___ 'GURUKRUPA' परिवार For Private and Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org संपादकीय Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir डॉ. उत्तमसिंह प्रकाशपर्व की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ श्रुतसागर का यह नूतन अंक अपने वाचकों के करकमलों में सादर समर्पित है । इस अंक में गुरुवाणी शीर्षक में आचार्यदेव श्री बुद्धिसागरसूरीश्वरजी का लेख प्रकाशित किया जा रहा है, जो विवेकदृष्टिपूर्वक आत्मदर्शन करते हुए आत्मा के शुद्ध स्वरूप को प्रकाशित करने का संदेश देता है। द्वितीय लेख राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी के प्रवचनांशों की पुस्तक 'Beyond Doubt' से क्रमबद्ध श्रेणी के तहत संकलित किया गया है। अप्रकाशित कृति प्रकाशन स्तंभ के अन्तर्गत इस अंक में संस्था में कार्यरत डॉ. उत्तमसिंह द्वारा संपादित 'नवपद स्तवन' नामक प्राचीन कृति प्रकाशित की जा रही है। मारुगुर्जर भाषा में निबद्ध यह पद्यात्मक रचना अजीमगंज के रायबहादुर श्री धनपतसिंह दुग्गड को भावित करने हेतु जैनकवि आचार्य श्री 'अमृतसूरिजी ' द्वारा रचित है। प्रायः अद्यपर्यन्त अप्रकाशित इस कृति का संपादन व प्रकाशन आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा के हस्तप्रत भण्डार में संगृहीत प्राचीन हस्तप्रत के आधार पर किया जा रहा है। इसके साथ ही देवनागरी लिपिबद्ध प्रकाशित कृति 'आदिनाथ वंदना का नागरी से ब्राह्मी लिपि में लिप्यन्तर छापा जा रहा है, जो इस लिपि को सीखने के प्रति रुचि रखनेवालों के लिए सहायक सिद्ध होगा । श्री किरीटभाई के. शाह ने कम्प्यूटर के माध्यम से ब्राह्मी लिपि के अक्षरों की प्रतिकृति तैयार की है। I इसी कड़ी में श्री भाविनकुमार के. पंड्या द्वारा संकलित 'लालभाई दलपतभाई ग्रन्थमाला' नामक लेख प्रकाशित किया जा रहा है । इस लेख में संस्था में उपलब्ध पुस्तकों के आधार से संस्था का संक्षिप्त परिचय देते हुए उपर्युक्त ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के विषय में प्रकाश डाला गया है। साथ ही पुनः प्रकाशन स्तंभ के तहत पूज्य मुनिश्री न्यायविजयजी द्वारा संकलित 'केटलांक महत्त्वनां फरमानपत्त्रो’ ऐतिहासिक लेख छापा जा रहा है, जो गतांक से जारी है। मुनिश्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. की पुण्य स्मृति में श्री पुष्पदंत श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ, अहमदाबाद में आयोजित त्रि-दिवसीय रत्नत्रयी महोत्सव संबंधी समाचारों का संकलन समाचारसार के अंतर्गत किया गया है। यह अंक पूज्य मुनिश्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. की पुण्य स्मृति में उन्हें सादर समर्पित है। आशा है इस अंक में संकलित सामग्री द्वारा हमारे वाचक लाभान्वित होंगे व अपने महत्त्वपूर्ण सुझावों से अवगत कराने की कृपा करेंगे। For Private and Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir गुरुवाणी आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरिजी वस्तुतः विवेकदृष्टिथी विचार करतां अवबोधाय छे के आत्मानुं दर्शन करवू अने आत्मानी शुद्धतानो प्रकाश करवो एज आगमोनो सार छे. आपणे कोण छीए अने आपणी शुद्धतानो केवी रीते प्रकाश करवो ते अवबोधवानी आवश्यकता छे. त्रणमण वा चारमणना शरीरमा रहेनार अने भूतकालनं स्मरण करनार आत्मा पोतानो छे अने ते शरीरने व्यापी रह्यो छे. आत्मानुं मूळ स्वरूप अने कर्मना योगे विकत स्वरूप अवलोकीने एमज विवेकदृष्टि दर्शावे छे के विभाविकरूप ते खरेखरूं आत्मानं रूप नथी. मोहना संबंधे विभावदशानं परिणमन थएलं छे. एना परिणमनथी विवेकी आत्मा भय पामे छे अने तेथी ते पोताना आत्माने कहे छे के हे आत्मन्! तमे पोताना शुद्धरूपे प्रकाशमय थाओ. विभाव मायारूप तमारा वैराट स्वरूपनो परिहार करवा माटे विवेकरूप अर्जुन पोताना आत्मारूप कृष्णने कहे छे के हे आत्मारूप कृष्ण तमारी कर्मरूप विभाव मायाथी बनेली वैराट् स्वरूपताने देखीने हुं भय पामु छु. कर्मरूप मायाए तमे विश्वरूप जणाओ छो अने तेथी आखी दुनिया तमारी कर्मरूप मायाना वैराट् स्वरूपमा देखाय छे माटे हेनो त्याग करीने तमे पोताना शुद्ध निर्मल रूपने प्रकाशो के जेथी हुं आनन्द पामुं. आ प्रमाणे विवेक ज्ञानरूप अर्जुन पोताना आत्मारूप कृष्णने कहे छे. ___ विवेक ज्ञान पोताना आत्माने आ प्रमाणे ज्यारथी विज्ञप्ति करे छे त्यारथी समजवू के हवे आत्मा उत्क्रान्ति मार्गमां संचरेलो कूटातो, पीटातो, अथडातो, अने ठोकरो खातो पोताना शुद्ध धर्मना आविर्भावने प्राप्त करवानो एम निश्चयथी अवबोधवं. पोतानी शुद्धता अवबोधी अने अशुद्धताथी भय पामवानुं थयु त्यारथी समजवू के हवे आत्मानी वेळा जागी, पोताना आत्माने विवेक दृष्टिथी भगवान् तरीके ओळखीने भगवान् शब्दथी संबोध्यो एटले समजवू के पोतानुं भगवानपणुं प्रगट करवानो मार्ग खुल्लो थयो. पोतानी सिद्धता, बद्धता अने परमात्मता अवबोध्या बाद आवा प्रकारना उद्गारो नीकळे छे अने पोताना आत्माने कहेवाय छे के हे भगवन् तुं पोताना शुद्ध स्वरूपने प्रकाश. पोताना आत्माने माटे जेने आ, मान प्रगट्यु अर्थात् उत्तम सत्कार प्रेम भक्ति उत्पन्न थइ ते आत्मा खरेखर पोताना हाथमां मुक्तिने धारण करनार थयो एम अवबोधवं. उपर्युक्त विवेकनो प्रकाश खरेखर आत्मज्ञानीने प्राप्त थाय छे. For Private and Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Beyond Doubt Acharya Padmasagarsuri On hearing this, the enemy fled without fighting. The endangered city was now freed from the danger. All the credit went to Vaidyaraj and was accorded a grand felicitation. The illustration proves that when meritorious deeds bear fruit, the person is favoured by fortune and success, even in diverse. Situations faced by Vaidyaraj Mafatlal. CHAPTER-9 When meritorious deeds are on the rise the person is not only favoured with all pleasures, but in this state, all unfavourable things and situations become favourable for him. An example is given to support the above statement An experienced Astrologer told to a man that time and luck were now in his favour. To test if good time was really favouring him, the man went straight to the king and slapped him on his face. The king's crown fell down. Seeing this the body-guards ordered the soldiers to put the man in chains and said that he shall be punished for slapping the king. But the king ordered the man to be rewarded worth one lakh rupees and released immediately. By slapping the king the man had saved the king's life, because a young one of a snake lay hidden under the Crown which the king did not notice while wearing the Crown. As soon as the Crown fell, the snake was seen crawling on the ground. If the man had not slapped the king, The king would have been bitten by the snake. Hence the man was highly rewarded and the man went home happily. When the sun rises people pray to him and bow down in reverence in the morning. But when the sun sets no one is bothered about its whereabouts. Similarly if fortune and luck favour a person, people will respect him and care for him but if he were to become bankrupt than in his bad time no one will ever talk to him and his good friends also will cease to be his friends anymore. As it is said For Private and Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR October-2016 'त्रिभिर्वैषस्त्रिभिमसै:स्त्रिभिः पक्षस्त्रिभिर्दिनैः। अत्युग्रपुण्यपापानामिहैव लभ्यते फलम् ॥' One is capable of reaping the first of intense meritorious deeds in this life itself within three years, three months, three fortnights or three days. The following incident took place when I was in Rajasthan a few years ago. A shravaka' from Madras came to see his mother in Rajasthan. His native village was at a distance of three Kms. from the Railway Station. When the train reached the station, it was midnight and it was not safe to travel late in the night because he had brought with himself a lot of precious things in a trunk. The seth explained his problem to the Station Master and took his permission to sleep in waiting room. He also asked the Station Master to help him to keep his belongings in the clock room. The Station Master said that there was no room in the small station and said that no one will disturb him because there was no train till the next morning. The traveller unfolded his bedding and kept his small trunk under the pillow and slept peacefully. Greed and dishonesty now ruled the Station Master's mind when the Seth told him that he had precious things with him, the Station Master wanted to possess them and had an eye on them. He thought that if he succeeded in getting those precious thing he need not work for the rest of his life and lead a luxurious life. As the seth was going to his home town to serve his parents, he too could be able to go to his native place and serve his parents. He laid a plot to kill the Seth in order to get hold of the precious trunk and earn a good living for himself and for his family. (Countinue...) For Private and Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवपद स्तवन डॉ. उत्तमसिंह कृति परिचय : मारुगुर्जर भाषा में निबद्ध प्रस्तुत कृति जैनाचार्य श्री अमृतसूरिजी म. सा. की रचना है। लगभग सवासौ वर्ष प्राचीन व प्रायः अद्यपर्यन्त अप्रकाशित इस कृति में सिद्धचक्र-नवपदजी की आराधना का सुन्दर वर्णन किया गया है। __ जैनशासन में इस आराधना का विशिष्ट महत्त्व है। इसमें मुख्यरूप से श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप इन नवपदों की आराधना का विधान है। इसी कारण यह आराधना नवपदजी के नाम से प्रसिद्ध है। इस कृति में चार-चार गाथाओं के द्वारा प्रत्येक पद की स्तुति की गई है तथा अन्तिम दो गाथाओं में कर्ता ने रचनाप्रशस्ति लिखी है। श्री सिद्धचक्रजी में सबसे मुख्य और प्रथम मण्डल इन नवपदों का है। शाश्वती ओली के दिनों में इन नवपदों को ध्यान में रखकर नौ दिनों तक प्रतिदिन आयंबिलपूर्वक एक-एक पद की आराधना की जाती है। धर्म का सम्पूर्ण सारभूत तत्त्व श्री सिद्धचक्रजी में संग्रहीत है। अतः इसकी आराधना के द्वारा समग्र धर्म की आराधना सुलभ बन जाती है। दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त करके जीवन में विशुद्ध भावपूर्वक श्री सिद्धचक्रजी की आराधना करना विवेकी आत्माओं का एक श्रेष्ठ कर्तव्य है। मोक्षपद की प्राप्ति करानेवाले समस्त धर्मकार्यों में नवपद आराधना का श्रेष्ठ स्थान है। साधक इसके आलंबन से ही आत्मकल्याण के मार्ग में सच्ची प्रगति साध सकता है। श्री सिद्धचक्रजी की आराधना से आत्मकल्याणकारी सद्गुणों का विकास होता है और आत्मा के दोषरूपी शत्रुओं का ह्रास होता है। इसी कारण दिनप्रतिदिन आराधना में प्रगति होती जाती है। ___ श्री सिद्धचक्रजी समस्त सद्गुणों के संग्रहस्थान हैं। जगत् में एक भी सद्गुण ऐसा नहीं दिखता जो कि सिद्धचक्रजी में विद्यमान न हो। इसी कारण श्री सिद्धचक्रजी को सद्गुणरूपी रत्नों की खान अथवा रत्नाकर की उपमा दी गई है। For Private and Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 8 SHRUTSAGAR October-2016 इसकी सच्ची आराधना करनेवालों का जीवन हमेशा सद्गुणरूपी रत्नों से हराभरा रहता है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इस कृति में नौ पदों की सुन्दर स्तुति करते हुए प्रत्येक पद की स्तुति में चार-चार गाथाओं का समावेश किया गया है। इसकी खास विशेषता यह है कि प्रत्येक पद की अन्तिम गाथा में धनपतसिंह का प्रतिकात्मक उल्लेख व साथ ही कर्ता ने ध्रुवपंक्ति में अपने नाम का भी उल्लेख किया है। रचना-प्रशस्ति के रूप में निबद्ध अन्तिम दो गाथाओं में कर्ता ने कृति-नाम, रचनासंवत्, तिथि, वार, पक्ष आदि का सुन्दर ढंग से उल्लेख किया है। कर्ता ने रचना-प्रशस्ति में संख्यावाची शब्दों का प्रयोग करते हुए तत्कालीन परम्परानुसार रचनासंवत् का उल्लेख किया है, जो इस कृति के सौष्ठव में चारचाँद लगा देता है, यथा संवत् नंद युग निधि रमा अश्विन सीतेतर सार । सिद्धचक्रगुण वर्णव्या तीथ नवमी गुरुवार ॥२॥ अर्थात् नंद-९, युग-४, निधि - ९, रमा - १, (वि.सं. १९४९), आश्विन मास, सीतेतर-सित से इतर अर्थात् कृष्ण-पक्ष, नवमी तिथि, गुरुवार के दिन इस कृति की रचना हुई है। कर्ता ने रचना-स्थल का उल्लेख तो नहीं किया है, लेकिन कृति में एक स्थान पर धनपतसिंह का नामोल्लेख अवश्य मिलता है। इसके आधार पर अनुमान लगाया जा सकता है कि कर्ता अमृतसूरि ने राजा धनपतसिंह के राज्यकाल में इस कृति की रचना की होगी । धनपतसिंह उस समय अजीमगंज (मुर्शिदाबाद) के राजा थे। संभवतः यही क्षेत्र इस कृति का रचनास्थल रहा होगा । कर्ता परिचय : इस कृति में कर्ता के रूप में आचार्य श्री अमृतसूरिजी का नामोल्लेख हुआ है तथा कृतिका रचना संवत् १९४९ है । इसके आधार पर इतना तो तय है कि ये बीसवीं शताब्दी के विद्वान थे। इसके अलावा कृति में एक स्थान पर धनपतसिंह (रायबहादुर) का नमोल्लेख हुआ है जो अजीमगंज (पश्चिमबंगाल) के राजा थे। इनका समय भी बीसवीं शताब्दी है । इसके अलावा इस कृति में कर्ता के गुरु या गच्छ-परम्परा अथवा उनके जीवन संबंधी अन्य For Private and Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ कोई उल्लेख नहीं मिलता है। विविध ग्रन्थों व हस्तप्रतों में बीसवीं शताब्दी के अमृतसूरि नामक कई विद्वानों का नामोल्लेख मिलता है, लेकिन इसके आधार पर इस कृति के कर्ता के गुरु अथवा गच्छपरम्परा का निर्धारण कर पाना मुश्किल है। अतः यहाँ कर्ता परिचय में सिर्फ इस कृति में प्राप्त सूचनाओं के आधार पर इतना ही कहा जा सकता है। हस्तप्रत परिचय : यह प्रत आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा के ग्रन्थभण्डार में प्रत संख्या ५२६५२ के रूप में दर्ज है। इस हस्तप्रत में कुल दो पत्र हैं, जिनमें दोनों ओर कृति लिखी हुई है। इसकी लिपि देवनागरी है। ___ हालाँकि प्रत के अन्त में प्रतिलेखक ने अपना नामोल्लेख, रचनास्थल अथवा लेखनसंवत् आदि के विषय में कुछ नहीं लिखा है। लेकिन इसकी लिपि तथा कागज को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि यह प्रत लगभग सौ-सवासौ वर्ष प्राचीन है। ___इसके आधार पर इसे कर्ता के समकालीन लिखी हुई प्रत कहा जा सकता है। यह आदर्श प्रत भी हो सकती है और शायद इसीलिए इस प्रत के अन्त में प्रतिलेखन पुष्पिका नहीं लिखी गई हो। संभव है कि कृति के अन्त में कर्ता ने रचनाप्रशस्ति में जो रचनासंवत् आदि का उल्लेख किया है उसी में प्रतिलेखन पुष्पिका का समावेश भी कर लिया गया हो। __ इस प्रत के प्रत्येक पत्र में ग्यारह पंक्तियाँ लिखी हुई मिलती हैं, तथा अन्तिम पत्र पर जहाँ कृति पूर्ण हुई है वहाँ आठ पंक्तियाँ लिखी हैं। प्रत्येक पंक्ति में लगभग बत्तीस से पैंतीस अक्षर लिखे गये हैं। कई स्थानों पर पाठों को सुधारा भी गया है। इस प्रत में पाठ-सुधार हेतु दो प्रकार की परम्परा देखने को मिलती हैएक तो सुधारे हुए पाठों को प्रत के हाँसिया-क्षेत्र में लिखकर सुधार करना तथा दूसरी परंपरा यह है कि जिस स्थान पर पाठ सुधारना हो, वहीं हंसपाद, काकपाद आदि चिह्नों का प्रयोग कर उसी स्थान पर ऊपर की ओर सुधारे हुए अक्षर अथवा शब्द को लिख देना । इस प्रत में दोनों ही परम्पराओं का अनुसरण For Private and Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 10 SHRUTSAGAR October-2016 किया गया है। ___ इस प्रत की लंबाई x चौडाई २६.०५ x १३.०० है। प्रत की दशा श्रेष्ठ है, जो आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर-कोबा के ग्रन्थागार में सुरक्षितरूप से संग्रहीत है। प्राचीन ग्रंथों के संरक्षण संपादन व विद्वानों को योग्य सूचना एवं शोधसामग्री उपलब्ध करना इस भण्डार की प्रमुख विशेषता है। अपनी बहुमुखी प्रतिभा एवं कार्यप्रणाली के कारण आज यह भण्डार देश-विदेश के प्रसिद्ध व नामचीन ग्रन्थागारों में प्रमुख स्थान प्राप्त कर चुका है। ॥१॥ ॥२॥ अमृतसूरिकृत नवपद स्तवन ॥श्रीगुरुभ्यो नमः॥ ॥ मनोहर सिंधू देश ए देशी॥ जय जय श्री अरिहंत परमेसर जिनरायें री। जगबंधु जगनाथ भविजन सुखदायें री निर्यामक सत्थवाह माह माहण जांणो रे। जगतारण जिन ईस वर करुणानी(नि)धानो (रे) विस्वंभर जगतात भगवन् वी(वि)स्वानंदी (री)। सहु जगमंडन स्वाम कस्मल चिर निकंदी री कर्मारिगण जित भए तेरमें गुणठांणे री। वंदें अमृतसु(सू)रीश धनधव हरि सुजांने री ॥ इति अरिहंतपदस्तवनं ।। दूजे पद श्री सिद्ध अनंतगुणनिधानै री। अजरामर अकलंक नहि ओपम अनुमान री अचल अमल अलेशी सब लोकांतवासी री। चिदानंद चित् रूप अलख अविनासी (री) ॥३॥ ॥४॥ ॥१॥ ॥२॥ For Private and Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्टूबर-२०१६ ॥३॥ ॥४॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ श्रुतसागर सहजानंदस्वरूप अव्यय अविकारी (री)। एहनी हुं वारंवार जाउं बलीहारी री रक्तवर्ण शुभ ध्यान धनधव हरी ध्यावे री। तीन करण करी शुद्ध अमृतसुरी(सूरि) गुण गावे री ॥ इति सिद्धपदस्तवनं ।। तिजै पद गनराज विमल क्रिया धारी । मुनिनायक मुनिसेव्य शाशनोन्नतकारी स्वपर समय जांण अलोभी सुद्ध भाखी। आचारज भगवान अनुभवपंथ सुदाखी सकल मुनी(नि) मांहैं श्रेष्ट(ष्ठ) प्रवचनप्रदा। तारी सूरीवर धर्माधार जगवं(ब)धव जगभ्राता षट्त्रिंशत् गुणाधार सुरी मन भावें री । वंदे अमृतसूरीस धनधव हरी ध्यावें री ॥ इति आचार्यपदस्तवनं ।। श्री पाठक माहाराज जगभ्राता उपगारी । द्वादश अंगी के जांण भवी जीव हितकारी सीतल चंद समांन अमीयरस वाणी। पंचवर्ग परिमाण गुणमणि खांणी गुणगण शोभी(भि)त गात्र परम सुखकारी। नीलवरण सुरंग वंदो वारंवारी उवझाय पद दिणंद धनधव हरी आराधे री। कहें अमृतसूरींद वंछी(छि)त फल साधे री ॥ इति उपाध्यायपदस्तवनं ।। श्री साधु मुनिराज पंचमपद अभीरांमी री। षट्काया प्रतीपाल आतमहितकामी (री) ॥४॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 12 October-2016 ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ ॥१॥ ॥२॥ SHRUTSAGAR तारक ऋषि नीग्रंथ पुरण ब्रह्मचारी। दमता इंद्री वांण पंच महाव्रतधारी सहे परीसा आप दुद्धर तपकारी। आगम आज्ञा जीत करें करणी सारी गुणगण सतावीस एहवा मुनी(नि) वंदो। कह अमृतसूरीश धनधव ची(चि)र नंदो ॥ इति साधुपदस्तवनं ।। जिनवर भाषी(षि)त सु(शु)द्ध दरसन चित धारो री। देव-गुरु-धरम स्वच्छ हृदय मझारो (री) सडसठभेदें सार सि(शि)वफल दाता रे । इणविन निर्फल ग्यान केसें उपजें साता (रे) मिथ्याती संग त्याग सूक्ष्म भाव विचारी री। जे आदरें क्षायकभाव सुलभ संसारि (री) दरसनपद जो षष्ट धनधव हरी धारै । कहें अमृतसूरीश पामें भवनो पारें ॥ इति दर्स(श)नपदस्तवनं ।। जय जय ज्ञान दिणंद सुरतरु अभीरामी। आराधो सु(शु)भमन अनुभव परीणामी मति आदी पंच प्रकार भेद इकावन तासें री। जगमे तारक एह सहु भाव प्रकासें (री) भक्ष अभक्षादि कृत्य ज्ञानथी जांणे री। ज्ञान विना पशु जेम सा(शा)स्त्र में वखांणे (री) ज्ञान की कीर्तना कोय पार न पावे री। कहे अमृतसूरीश धनपत हरी ध्यावे री ।। इति ज्ञानपदस्तवनं ।। ॥३॥ ॥४॥ ॥१॥ ॥२॥ ॥३॥ ॥४॥ For Private and Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13 ॥३॥ श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ अष्टम पद चारी(रि)त्र सी(शि)वसुखदाइ री। पंच आश्रवनो हेय संबर समाइ री ॥१॥ खंती मद्दव अज्जव मुत्ती तपधारी री। इत्यादीक दस धर्म मे जाउं वलीहारी (री) ॥२॥ षट्खंडको ऐश्वर्य चक्री तृणवत् त्यागी री। धारी निर्मलभाव भए संजम रागी री अगणी(णि)त गुण चारी(रि)त्र चंदवरन हितकारी री। कहै अमृतसु(सू)रीश धनधव जयकारी (री) ॥४॥ ॥इति अष्टमपदस्तुति ।। नवमो तपपदधार वाज्य(बाह्य) अभ्यंतर भेदे री। सुचीधर ची(चि)त्तनी(नि)रोध दुष्टध्यान छेदे री ॥१॥ करम सघन होय दूर अष्ट महासी(सि)द्ध पावें री। लवद्धी(लब्धि) अठावीस ए तपनें प्रभावें (री) ॥२॥ धारी नी(नि)रमलभाव सुरनरवर सेवें री। पंचमज्ञानी उपाय मुक्तीसुख लेवें री ए नवपदनो ध्यान धनपतसिंघ ध्यावे री। कहें अमृतसू(री)श वंच्छी(छि)त फल पावै (री) ॥४॥ ॥ इति नवमपदस्तवनः ।। ए नवपदनी स्तुति कीधी बुधी अनुसार । भूलचूक जो होय तो लेज्यौ कवी(वि) सुधार संवत् नंद युग निधि रमा आश्विन सीतेतर सार। सिद्धचक्रगुण वर्णव्या ती(ति)थ नवमी गुरुवार ॥२॥श्री।। ॥३॥ ॥१॥ For Private and Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir બ્રાહ્મી લિપિમાં આદિનાથ વંદના કિરીટ કે. શાહ બ્રાહ્મી લિપિના કાર્ય અંગે મારું મંતવ્ય અને કર્તવ્ય : બ્રાહ્મી લિપિમાં લખાયેલું સાહિત્ય શિલાલેખો સિવાય હાલ ઉપલબ્ધ નથી. તેમજ બ્રાહ્મીમાં સાહિત્ય તૈયાર કરવાનું બહુ મુશ્કેલ પણ નથી લાગતું તેમ છતાં તાડપત્રીય કે કાગળ ઉપર બ્રાહ્મી લિપિમાં સાહિત્ય કેમ ઉપલબ્ધ નથી તે જાણવું મુશ્કેલ થઈ પડ્યું છે. તિબેટીયન ભોટ ભાષાની લિપિના મૂળાક્ષરોનો ચાર્ટ અને બ્રાહ્મી લિપિના મૂળાક્ષરોવાળો ચાર્ટ મને વિદ્વદ્વર્ય પરમ પૂજ્ય મુનિરાજશ્રી જંબૂવિજયજી મ.સા. તરફથી ઘણા વર્ષો પહેલા મળેલ. બ્રાહ્મી લિપિમાં મૂળાક્ષરોની સાથે કાના, માત્રા, હ્રસ્વ દીર્ઘ ચિન્હો પણ સરળ છે જે ચાર્ટ જોતા જણાયેલ. બ્રાહ્મી એ ભાષા નથી પણ લિપિ છે માટે આપણે થોડા નિષ્ઠાપૂર્વકના પ્રયત્નથી કોઈ પણ ભાષાની લિપિના સ્થાને બ્રાહ્મી લિપિનો ઉપયોગ કરી શકીએ, દા.ત. ગુજરાતીલિપિમાં લખેલ ‘ભગવાન’ શબ્દને બ્રાહ્મીમાં ઠં એમ લખી શકાય છે. દેવનાગરી લિપિમાં લખેલ ‘દેશના મુન્નર' શબ્દને બ્રાહ્મીમાં rlfk આ રીતે લખી શકીએ. બ્રાહ્મી મૂળાક્ષરોની આગળ-પાછળ-ઉપર-નીચે હ્રસ્વ, દીર્ઘ, કાનો, માત્રા, અનુસ્વાર લખવાથી સંપૂર્ણ લખાણ તૈયાર થઈ શકે છે. એક વિદ્યાર્થી તરીકે મેં બ્રાહ્મી લિપિના મૂળાક્ષરોનો અભ્યાસ કર્યો. બહુ સરળ લાગતી પ્રાકૃત ભાષાની દેવનાગરી લિપિમાં છપાયેલ કૃતિને બ્રાહ્મી લિપિમાં આલેખવાનો પ્રયત્ન કર્યો. બ્રાહ્મી જાણકાર બહુ જ ઓછી વ્યક્તિઓ છે, મેં કાગળ ઉપર હાથથી લખેલ લખાણ કેટલું શુદ્ધ છે તે જાણવા માટે કઈ વ્યક્તિને બતાવું? મારી અશુદ્ધિઓ હોય તે શુદ્ધ કરી આપનાર વિદ્વાનની સહાયથી મારા કાર્યને આગળ ધપાવવા પ્રયત્નો છેલ્લા એક વર્ષથી સતત કરતો રહ્યો પણ લિપિવિશેષજ્ઞ મળવા મુશ્કેલ થયા. અનેક વ્યક્તિઓને પૂછતાછ કરતા કોઈ સંતોષકારક સહયોગ ન સાંપડ્યો. બ્રાહ્મી લિપિમાં કામ કરવાની ધગશને કારણે મને અચાનક આચાર્ય શ્રી કૈલાસસાગરસૂરિ જ્ઞાનમંદિર, કોબા તરફથી પ્રકાશિત થતા માસિક “શ્રુતસાગર”માં બ્રાહ્મી લિપિના મૂળાક્ષર અને બારાક્ષરીનો ચાર્ટ જોવા મળ્યો તેનો આધાર લઈ મેં મારું વિદ્યાભ્યાસનું કાર્ય આગળ ધપાવ્યું. For Private and Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 15 श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ “શ્રુતસાગર” માસિકમાં બ્રાહ્મીનો ચાર્ટ તૈયાર કરનાર લિપિ-વિશેષજ્ઞ ડૉ. શ્રી ઉત્તમસિંહજીનો રૂબરૂ સંપર્ક કર્યો, વિદ્વત્તાના ભાર વગર તેઓશ્રીએ મને ખૂબ જ ઉદારતાપૂર્વક પ્રોત્સાહન અને પ્રેરણા કરી મારી ક્ષતિઓ દૂર કરવા માર્ગદર્શન આપ્યું, જે કોબા જ્ઞાનમંદિરની લાક્ષણિકતાને કારણે મારા માટે ખૂબ જ ઉપયોગી થયું. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir પરમ પૂજ્ય આ. શ્રી અજયસાગરસૂરિજી જે કોબા સ્થિત જ્ઞાનમંદિરના શ્વાસ અને પ્રાણ સ્વરૂપ જ્ઞાનપિપાસુ વ્યક્તિઓને માટે એક જ્ઞાનની પરબ સમાન છે તેઓશ્રીએ પણ ખૂબ જ નિખાલસતાથી પ્રોત્સાહન પૂરું પાડેલ છે. બ્રાહ્મી લિપિને પુસ્તકારૂઢ કરવા માટે મારી જાણ મુજબ કોઈ ટાઈપો ફોન્ટ કોમ્પ્યુટરથી કામ કરવા માટે નથી તેમ છતાં ઘણી શોધખોળ કરી પણ કાંઈ હાથ લાગ્યું નહીં. ધ્યેયને સિદ્ધ કરવા હિંમત હાર્યા વગર એક નિશ્ચય કર્યો કે બ્રાહ્મીને પુસ્તકારૂઢ કરવી છે. આ વિચારને ફલિતાર્થ કરવા મેં ટાઈપો-મેટ્રીસબીબા કોમ્પ્યુટર દ્વારા કામ થઈ શકે તે માટે દિવસો નહીં મહિનાઓની મહેનતે બ્રાહ્મી લિપિ કોમ્પ્યુટર દ્વારા લખવાને માટે મૂળાક્ષરો તૈયાર કરાવ્યા જેના દ્વારા પુસ્તકારૂઢ થયેલ બ્રાહ્મી લિપિ આપના કરકમલોમાં પ્રસ્તુત છે. પ્રથમ તીર્થંકર શ્રી ઋષભદેવે તેઓની પુત્રી બ્રાહ્મીને લિપિજ્ઞાન આપ્યું તેથી તે લિપિનું નામ બ્રાહ્મી પડ્યું પણ આજે બ્રાહ્મી લિપિ લુપ્ત થવામાં હોય તેના જાણકાર પણ બહુ જ ઓછા છે. આવતા વર્ષોમાં આ લિપિ નાબુદ ન થઈ જાય તે માટે મારો નમ્ર પ્રયાસ છે. હું કોઈ લિપિ વિશેષજ્ઞ નથી કે નથી વિદ્ભોગ્ય સાહિત્ય રચી શકું તેવી ક્ષમતા ધરાવતો, હું વિદ્યાર્થી અવસ્થાનો જ્ઞાનપિપાસુ છું. બ્રાહ્મી લિપિના પુરાતન શિલાલેખો ઉકેલી શકું તેવી કુસળતા ધરાવતો નથી તેમ છતાં મેં એવો નિર્ણય કર્યો કે બ્રાહ્મી લિપિમાં કોમ્પ્યુટરથી કામ કરી શકાય તેવી રીતે મૂળાક્ષરો તૈયાર કરાવી નાની-નાની કૃતિઓ છપાવીને વિજ્રનો સમક્ષ પ્રસ્તુત કરી બ્રાહ્મી લિપિને પ્રકાશમાં લાવવી. આ મારા પ્રયત્નમાં દરેકને અબાધિત અધિકાર છે કે, મારી ક્ષતિઓ જણાય તેનું સૂચન કરી પ્રોત્સાહન પૂરું પાડશો તેવી હાર્દિક નમ્ર અરજ છે. બ્રાહ્મી લિપિ પુસ્તકારૂઢ કરવા માટે પ.પૂ. આચાર્ય શ્રી શીલચંદ્રસૂરિજી મ.સા. ના શિષ્યરત્ન શ્રી કલ્યાણકીર્તિવિજયજી મ.સા.એ માર્ગદર્શન આપ્યું જેથી તેઓનો તેમજ જે જે વ્યક્તિઓએ સહયોગ, માર્ગદર્શન અને સહકાર આપેલ છે તેઓને શત શત વંદન સહ આભારની લાગણી વ્યક્ત કરું છું. For Private and Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra SHRUTSAGAR www.kobatirth.org 16 आदिनाथ वंदना \r© &> VAKYAVITI9 C≠TY, T} बालत्तणंमि सामिय, सुमेरुसिहरंमि कणयकलसेहिं । →JKTY' [४'! [४£['t£Y' +II+JaC* तिअसासुरेहिं न्हविओ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि॥१॥ KATAI tolKD≠ ট* $8 [121 तिअसिंदकयविवाहो, देवीसुमंगला सुनंदाए । *1+168t35AY AJ AL54 नवकंकणो सि सामिअ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥२॥ 18++ï [' [४'' 1 D° ° $6 [12/ रायाभिसेयकाले, विणीयनगरीइ तिअसलोगंमि । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिबिअविमाणारूढो, जईआ तं नाह दिक्खसमयंमि । October-2016 न्हविओ मिहुणनरेहिं, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥ ३ ॥ to' 8'I' 'K Df ư ई४ ॥३॥ दाणं दाऊण पुणो, रज्जं चइऊण जगगुरू' पढमो I $I $ĻI ↓Ł {{' _d4IEAAÉL6K निक्खमणमहिमकाले, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥४॥ ICFJ DE ECSE ♫ 11811 8.TRY4$ HYK:321189KP पत्तो सिद्धत्थवणं, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥५॥ Uk_r'8o6I' _k_Df t° ४[ ॥५॥ For Private and Personal Use Only काऊण य चउमुट्ठि, लोयं भयवं पि सक्कवयणेणं I †LI ↓ dLYS JI l8° _¢_a†841T Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 17 अक्टूबर-२०१६ श्रुतसागर वाससहस्सं विहरइ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥६॥ SAALAL NDTV 16 ॥॥ रंजंतो वणराई, कंचणवन्नेण नाह देहेण। SET Ir:: dIII ILLI धन्नाइं मयकुलाई, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥७।। Df:: BItJ:: NDf 581 ॥७॥ नमिविनमी रायाणो, तह पयपउमंमि नाहमल्लीणा। 18818 TEAL LILLY४' rugs पत्ता वंछियरिद्धिं, ते धन्ना जेहिं दिट्टो सि ॥८॥ TDft 8tun गयपुरणयरे सेयंसराइणो, पढमदिन्नपारणए। MILIIIT LATF ८6851CIA इक्खुरसं विहरतो, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥९॥ ::Glid SLIK DEEL 58 11811 अद्धतेरसकोडीओ, मुक्का सुरवरेहिं तुम्हे हिं। MB IdFrazyf dib. KYĆ उक्कोसा वसुहारा, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥१०॥ LF BACE IDR 581 ॥१०॥ छट्टट्ठमदसमदुवालसेहिं, मासद्धमासखमणेहिं। 8888826Jat 88811४1t उग्गं तवं तवंतो, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥११॥ LAMUKADft58॥११॥ लंबंतबाहुजुयलो, निच्चलकाओ पसन्नचित्तमणो। J'OROVELT L'AJFL ldf$ 481 For Private and Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 18 धम्मज्झामि ठिओ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥ १२॥ D&FI'४' OLK D¢ * ४ ॥१२॥ तह पुरिमतालनयरे, नग्गोहदुमस्स संठिओ हिट्ठा । Ri (8RJ127 16281 TỚI CÔ केवलमहिमा गहिओ, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥१३॥ 78J8tY ACL K Df Ć ई४ [' ॥१३॥ पउमेसु ठविअचलणो, बोहंतो भविअकमलसंडाइं । LLYA OŠ'AdJ DUK_54+8JA?::: सामिअ तेच्चिअ धन्ना, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥ १४ ॥ [४'' kï'A Df k DÐे ४ ['॥१४॥ तिअसासुरमज्झगओ, कंचणपीढमि संठिओ नाह । KAAL FICY AOLIC धम्मं वागरमाणो, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥१५॥ October-2016 DAYIKD 6 ||१५| ते धन्ना कयपुन्ना, जेहिं जिणो वंदिओ तया काले । DE TULE EC EF 652 KS FJ केवलनाणसमये, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥ १६॥ 76JFIø81_1_Df t ४ ॥१६॥ धन्नेहिं तुमं दीससि, नवि अ अहन्नेहिं अकयपुन्नेहिं । D∃tky $at' 15 × ×∃Ć' ×+14°C तुह दंसणरहियाणं, निरत्थयं माणुसं जम्म ॥१७॥ ४१ ॥१७॥ AIII ft मिच्छत्ततिमिरवामोहिअंमि, जय नाह तिहुअणे सयले । ४ght 15 ४८४' For Private and Personal Use Only IL KAI AJJ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 19 श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ उम्मीलिऊण नयणे, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥१८॥ [BJLI IIINDf 58 ॥१८॥ अट्ठावयंमि सेले, चउदसभत्तेण मुक्खमणुपत्तो। 16818 RJ dLANI४ दसहि सहस्सेहि समं, ते धन्ना जेहिं दिवो सि ॥१९॥ adduate Dft 18 ॥१९॥ इअ चवणजम्मनिक्खमणनाणनिव्वाणकालसमयंमि। .:.8 dbIXITFIT{IFJ18 18 भत्तिब्भरनिब्भरेहि, ते धन्ना जेहिं दिट्ठो सि ॥२०॥ Plgirgit: Dft58 ॥२०॥ दढमूढअयाणगेण, भत्तिए संथुओ सया भयवं। १८४HINI PAROLA PI तं कुणसु नाभिनंदण, पुणो वि जिणसासणे बोहिं ॥२१॥ K tid III 47 6 ILI OU RRPI शतशांतिकांति समतानिशांतं, दष्टाष्टकर्मक्षयकं नितांतं । निर्मोहमानं परमं प्रशांतं, वंदे जिनेशं परमं महांतं ॥१॥ यस्यांबिका श्रीत्रिशलाभिधाना, सिद्धार्थराजा जनकः प्रसिद्धः ॥ विश्वोपकृत दुस्सहदुस्समेपि, तं वीरनाथं प्रणतोस्मि भक्त्या ॥२॥ (आचार्यश्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर प्रत-४०५०० के अंत में से उद्धृत श्लोक) For Private and Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लालभाई दलपतभाई ग्रन्थमाला भाविनकुमार के. पंड्या प्राचीनकाल से भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की अविचल धारा निरंतर प्रवाहित होती रही है। इसका मुख्य कारण यहाँ की सबसे महत्त्वपूर्ण व आधारभूत परंपरा श्रुतज्ञान के संरक्षण एवं संवर्द्धन की व्यवस्था है। जिससे वाचकगण लाभान्वित होते रहे हैं। इस प्राचीनतम परंपरा के संरक्षण-संवर्धन तथा ज्ञान की साधना-आराधना करनेवालों के लिए उपयोगी अनेक ज्ञानभण्डारों-ज्ञानमन्दिरों-पुस्तकालयोंग्रन्थागारों की स्थापना समय-समय पर पूज्य श्रमण-श्रमणियों की प्रेरणा से सुश्रावकों द्वारा की जाती रही है। आज भी ऐसी कई संस्थाएँ हैं, जो निरंतर श्रुत की सेवा व उसके प्रचार-प्रसार-विस्तारार्थ तत्पर हैं। श्रुतज्ञान के संरक्षण-संवर्द्धनरूपी शृंखला की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में ज्ञानाराधना के क्षेत्र में सुप्रसिद्ध अद्वितीय संस्था 'लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद' है। जिसकी स्थापना पूज्य मुनिश्री पुण्यविजयजी म. सा. की प्रेरणा से अहमदाबाद के स्वनामधन्य शेठ श्री कस्तूरभाई लालभाई द्वारा की गई थी। भारत के पश्चिम में स्थित जैन धर्म एवं संस्कृति की पुण्य भूमि गुजरात राज्य के मध्य में साबरमती नदी के दोनों तटों पर बसा हुआ नगर जिसे हम अहमदाबाद-कर्णावती-राजनगर-अमदावाद आदि नामों से जानते हैं, उस रमणीय नगरी में जैन धर्म एवं प्राच्यविद्या के संशोधन केन्द्र के रूप में ख्यातिप्राप्त श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर (ला.द.भा.सं.वि.) विद्यमान है, जिसकी स्थापना ईस्वी सन् १९५५ में हुई। । तत्पश्चात् ईस्वी सन् १९६३ में विशाल उद्यान से सुशोभित सुंदर भवन का निर्माण हुआ और उसका उद्घाटन स्वतंत्रभारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित श्री जवाहरलाल नेहरु के करकमलों से गुजरात राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ. जीवराज महेता व राज्यपाल माननीय श्री महेंदीनवाज़ जंग की उपस्थिति में For Private and Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ हुआ। मुनि श्री पुण्यविजयजी ने संस्था को करीब १०००० हस्तप्रत और ७००० पुस्तकों की अत्यन्त मूल्यवान भेंट दी थी। ___ वर्तमान इस संस्था के पास लगभग ७५ से ८० हजार हस्तप्रतें संग्रहीत हैं, जिनमें राष्ट्रसंत आचार्य श्री पद्मसागरसूरीश्वरजी म. सा. द्वारा प्रदत्त करीब ८००० हस्तप्रतों का भी महनीय स्थान है. संस्कृत, प्राकृत, पालि, पुरानी गुजराती, पुरानी हिन्दी तथा अन्य भारतीय व विदेशी भाषाओं में भारतीय संस्कृति, धर्म-तत्त्वज्ञान, ज्योतिष, व्याकरण, छन्द, साहित्य आदि विभिन्न विषयों से संबंधित अति प्राचीन से लेकर अर्वाचीन पुस्तकें उपलब्ध ही नहीं बल्कि सुरक्षित भी हैं। ___ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर के विशिष्ट आकर्षण का केन्द्र उसका सांस्कृतिक संग्रहालय है, जहाँ पुरातत्त्वसामग्री व सुंदर चित्र, शिल्प, वस्त्र, आभूषण, गृहशोभा की वस्तुएँ आदि तथा १२वीं सदी की चित्रयुक्त हस्तप्रतों के लगभग ४०० नमूने दर्शनार्थियों एवं आगन्तुकों को प्राचीन भारतीय जीवन व संस्कृति के मनमोहक दृश्यों का अवलोकन कराते हैं। प्रस्थापक ( श्रेष्ठिवर्य श्री कस्तूरभाई लालभाई) : लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर के संस्थापक शेठ श्री कस्तूरभाई का जन्म राजनगर अहमदाबाद के श्रेष्ठिवर्य श्री दलपतभाई के ज्येष्ठपुत्र शेठ श्री लालभाई (ई.स.१८७३-१९१२) की धर्मपत्नि श्रीमती मोहिनाबहन की कुक्षि से वि.सं. १९५१ मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी बुधवार तदनुसार दिनांक-१९/१२/१८९४ के शुभदिन हुआ था। उनका लालन-पालन बहुत अच्छी तरह हुआ व उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय संस्था से प्राप्त की। उनका अध्ययन चल ही रहा था कि अचानक पिता का देहावसान हुआ, जिसके कारण मैट्रिक तक की ही शिक्षा प्राप्त कर सके, परन्तु जिनका नाम ही कस्तूरभाई हो उनको तो निश्चित ही अपनी स्वभाव-सुगंध से समाज को सुवासित करना था, अतः पिता के अवसान से १७ वर्षीय श्री कस्तूरभाई ने माता की आज्ञा को शिरोधार्य कर स्नातकाभ्यास को तिलांजलि देकर For Private and Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR October-2016 पारिवारिक व्यवसाय में कपड़े की मील की ज़िम्मेदारियों का वहन करना स्वीकार कर लिया। उनके जीवनपरिवर्तन में मुख्य तीन प्रसंगों का बहुत बड़ा श्रेय रहा है. १. गुजरात का दुष्काल, २. महात्मा गांधीजी का उपवास आंदोलन और ३. सामाजिक कार्यक्षेत्र का विस्तार। उन्होंने कई तीर्थों व जिनालयों के जीर्णोद्धार का सौभाग्य प्राप्त किया, जैसे-राणकपुर, आबू, कुंभारिया, गिरनार, तारंगा आदि। साथ ही श्रीसंघ के बहुत सारे सम्मेलनों में भी इनका योगदान सराहनीय रहा है। औद्योगिकक्षेत्र में भारत को उच्चतम स्थान पर ले जाने हेतु एक सक्षम उद्योगपति के रूप में आधुनिक भारत की नीव को मज़बूती प्रदान करने में भी इनका अविस्मरणीय योगदान रहा है। ऐसे उन्नत व्यक्तित्व के धनी दिनांक २७/१/१९८० के दिन इस दुनिया को अलविदा कहते हुए अपनी आत्मा को परमात्मा में लीन कर लिए। ग्रंथमाला व संस्था के प्रेरणास्रोत- मुनि श्री पुण्यविजयजी : पुण्यमूर्तिः पुण्यचेताः पुण्यधीः पुण्यवामनाः । पुण्यकर्मा पुण्यशर्मा श्रीपुण्यविजयो मुनिः ।। आगमप्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी म. सा. का लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर की संस्थापना में आधारभूत स्तंभसमान योगदान रहा है। उन्होनें वि. सं. १९६५ माघ कृष्ण पंचमी को बड़ौदा (वडोदरा) में मुनिवर्य श्री चतुरविजयजी का शिष्यत्व स्वीकार किया। मुनिश्री पुण्यविजयजी ने दीक्षा से बहुत कम समय में ही प्रकरणग्रंथ, मार्गोपदेशिका, सिद्धहेम लघुवृत्ति, हेमलघुप्रक्रिया, चंद्रप्रभाव्याकरण, हितोपदेश, दशकुमारचरित आदि काव्यों का भी वाचन किया। आगे चलकर उनकी मुलाकात प्रज्ञाचक्षु पंडित श्री सुखलालजी संघवी के साथ हुई, उस दौरान सुखलालजी से उन्होंने वैदिक व बौद्धदर्शन का भी परिशीलन किया। For Private and Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रुतसागर 23 अक्टूबर-२०१६ इस प्रकार मुनि श्री पुण्यविजयजी ने अपने निर्दंभ साधुजीवन व सत्यग्राही ज्ञानसाधना के स्वभाव से प्राचीन आगमग्रंथ तथा अन्य साहित्यों का भी संशोधन किया। उनकी इस असाधारण निपुणता का लाभ अनेक ग्रंथों व ग्रंथमालाओं को मिला है, यथा- प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी, लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला, बंबई के श्री महावीर जैन विद्यालय की मुख्य जैन आगम ग्रंथमाला आदि। इन ग्रंथमालाओं के अन्तर्गत अनेक विरल प्रकाशनों का संपादन हुआ है। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उन्होंने अपने गुरुश्री व दादागुरुश्री के साथ बीकानेर, अहमदाबाद, पालीताणा, बडौदा व राजस्थान के बहुसंख्यक ज्ञानभण्डारों को पुनर्जीवित किया, हस्तप्रतों की सुरक्षा के लिए व्यवस्था की व कुछ प्राचीन ज्ञानभण्डार जो कि नामशेष हो रहे थे, उनको भी सुव्यवस्थित किया और उसमें भी जेसलमेर के ज्ञानभण्डार के लिए उन्होंने सोलह-सोलह महिनों तक जो तप किया है वह तो श्रुतरक्षा के इतिहास में निःसंदेह स्वर्णाक्षरों से अंकित रहेगा। इसके अतिरिक्त आगम साहित्य प्रकाशन के लिए मुनिवर्य द्वारा अनेकविध प्रसंशनीय कार्य हुए हैं। उन्हीं कार्यों में से लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला व जैन आगम ग्रंथमाला के प्रकाशन हैं, जो उनकी कीर्तिगाथा निरंतर सुनाते रहेंगे। उनके पास कोई डिग्री न होने पर भी विद्यावारिधि के महानिबंध के परीक्षक, वि. सं.१९५९ में अहमदाबाद में इतिहासपुरातत्त्व विभाग के प्रमुख, वि. सं. २००९ में विजयधर्मसूरि जैनसाहित्य सुवर्णचंद्रक, वि. सं. २०१० में बड़ौदा श्रीसंघ द्वारा ‘आगमप्रभाकर' की सार्थक पदवी का अर्पण, ई. स. १९६१ में All India Oriental Conference में प्राकृत और जैनधर्म विभाग के अध्यक्षपद पर चयन । ई. स.१९७० में The American Oriental Society के मानद सभ्यपद पर नियुक्ति, वि. सं.२०२७ में वरली (बंबई) में प्रतिष्ठा महोत्सव के दौरान चतुर्विध श्रीसंघ की उपस्थिति में आचार्य श्री विजयसमुद्रसूरिजी द्वारा 'श्रुतशीलवारिधि' की यथार्थ पदवी का प्रदान आदि उपलब्धियों से विभूषित हुए चारित्रोद्द्योतदीपाय निःस्पृहायाभयाय च । श्रीपुण्यविजयायास्तु नमः पुण्यविभूतये ॥ For Private and Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 24 SHRUTSAGAR October-2016 प्रकाशनोद्देश्य : ___ लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर को शुरूआत से ही भारत सरकार द्वारा प्रकाण्डपण्डित' सम्मानविभूषित पंडित श्री डॉ. दलसुखभाई मालवणिया का नियामकस्वरूप आधारस्तंभ प्राप्त हुआ तथा आदरणीय प्रज्ञाचक्षु पंडित श्री सुखलाल संघवीजी का नित्य मार्गदर्शन प्राप्त होता रहा। आगमप्रभाकर मुनिश्री पुण्यविजयजी की प्रेरणा से दलसुखभाई की ही नियामकनिश्रा में ईस्वी सन् १९६३ में लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर द्वारा एक ग्रंथमाला की शुरूआत हुई। जिसका नाम 'लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला' (ला.द.ग्रं.) रखा गया। इस ग्रंथमाला का मुख्य उद्देश्य श्रुतज्ञान-विरासत स्वरूप हस्तप्रतों में रही हुई उत्कृष्ट अप्रकाशित कृतियों का प्रकाशन, हस्तप्रतों का सूचीकरण करके ग्रंथसूची प्रकाशित करना, जैनदर्शन से संबंधित विविध विद्वानों द्वारा रचित शोधपूर्ण ग्रंथों का प्रकाशन, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर के तत्त्वावधान में विशिष्ट विद्वानों द्वारा किये हुए शोधप्रबंध-शोधग्रंथों का प्रकाशन, पुरातत्त्वशास्त्रसंबद्ध विरल कृतियों का प्रकाशन व संपादन आदि रहा है। इस ग्रंथमाला के अन्तर्गत संस्था द्वारा समय-समय पर आयोजित परिसंवाद, कार्यशाला, व्याख्यानमाला (श्रेष्ठीश्री कस्तूरभाई लालभाई व्याख्यानमाला, मुनिश्री पुण्यविजयजी स्मृति व्याख्यानमाला, लालभाई दलपतभाई व्याख्यानमाला, प्रो.वी.एम.शाह स्मृति व्याख्यानमाला) आदि में से उपयोगी व्याख्यान-शोधलेख-शोधपत्र आदि का प्रकाशन किया गया व आज भी यह ज्ञानगंगा अनवरत अक्षुण्णरूप से प्रवाहित है। प्रधानसंपादक : ___ लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला के आद्य प्रधानसंपादक के रूप में जिनका महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला वे- गुणग्राही, सत्यान्वेषी व गहनसाहित्योपासक, न्यायतीर्थ पं. सुखलालजी संघवी और पं. बेचरदास दोशी के शिष्य, जैनआगमदर्शन-साहित्य तथा बौद्ध-दर्शन-साहित्य के साथ ही वैदिक-दर्शन-साहित्यादि For Private and Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर 25 अक्टूबर-२०१६ विषयों में ज्ञानप्रौढ़ ऐसे पंडित श्री दलसुखभाई डाह्याभाई मालवणिया थे। उनका जन्म दिनांक-२२/७/१९१० को सुरेन्द्रनगर के सायला गाँव में हुआ। बाद में बीकानेर, जयपुर व ब्यावर में अपना स्नातकाभ्यास पूर्ण करके शतावधानी मुनिश्री रत्नचन्दजी से कच्छ के अंजार चातुर्मास दौरान अध्ययन, शान्तिनिकेतन में विबधशेखर भट्टाचार्यजी से पालिभाषा व बौद्धदर्शन का अभ्यास तथा वहीं पर आचार्य श्रीजिनविजयजी से प्राकृत-भाषा-साहित्य का ज्ञान प्राप्त किया, ऐसे बहुत से आह्लादक प्रसंगों से अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जैनसंकाय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। ___ मुनिश्री पुण्यविजयजी प्रेरित दिल्ली की प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी में बतौर मंत्री के पद पर नियुक्त किए गए और मुनिश्री पुण्यविजयजी की ही प्रेरणा से ई. स.१९५७ में शेठश्री कस्तूरभाई लालभाई द्वारा प्रस्थापित लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर में निदेशक की भूमिका को स्वीकार किया व इस संस्थान में प्रकाशन-संपादन-संशोधन-ग्रंथमालासंपादन आदि कार्यों का वहन कर ई. स.१९७६ में सेवानिवृत्त हुए एवं निवृत्त्यनन्तर भी संस्था उनके ज्ञान से लाभान्वित होती रही। पं. दलसुखभाई के साथ व उनके बाद में भी संस्थान को असीमित ज्ञानसमृद्ध और प्रतिभाशाली ज्ञानोपासनारत प्रधानसंपादक प्राप्त हुए, जिनमें श्री अंबालाल पी. शाह, श्री नगीनभाई जीवनलाल शाह, श्री हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी, पंडित बेचरदास दोशी, श्री रमेशभाई एस. बेटाई, श्री यज्ञेश्वरभाई एस. शास्त्री और वर्तमान में प्रधानसंपादक की धुरी को धारण कर रहे डॉ. जीतेन्द्रभाई बी. शाह। ___ इन विद्वानों के मार्गदर्शन से ही ग्रंथमाला का प्रकाशन अविच्छिन्नरूप से हुआ व आज भी वह ज्ञानधारा अनवरत साहित्यजगत् को आप्लावित कर रही है। जब लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर या मुनिश्री पुण्यविजयजी म. सा. के साथ संलग्न विद्वानों कि बात हो तो फिर हम लिपिविशारद श्रीलक्ष्मणभाई भोजक (लक्ष्मणकाका) को कैसे भूल सकते हैं, For Private and Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir SHRUTSAGAR 26 October-2016 जिन्होंने बहुत सी कृतियों को हस्तप्रतों में से प्रकाशित करके श्रुत-उपासकों को लाभान्वित किया है। ऐसे प्रकांड पंडित जो न सिर्फ लिपिविषेशज्ञ व हस्तप्रतविद्याविद् बल्कि हस्तविद्या के एक मर्मज्ञ विद्वान् थे । किन्तु 'अल्पश्च कालः बहवश्च ज्ञेयम्' इस सूक्ति को दृष्टिसमक्ष रखते हुए इस विषय पर एक स्वतन्त्र लेख तैयार करने की भावना है। प्रकाशितपुष्पपराग : लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला अंतर्गत अब तक १६७ लघु-दीर्घ ग्रंथों का संपादन-प्रकाशन हुआ है। जिसमें से आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर, कोबा में लगभग सभी प्रकाशन केवल उपलब्ध ही नहीं अपितु सुरक्षित भी हैं। उन सबमें भी विद्वत्समाज में प्रशंसनीय प्रकाशनपुष्प जो कि शोधक्षेत्र में अपनी सुवास नित्य विस्तारित कर रहे हैं, आइये हम उनके विषय में भी कुछ ज्ञानार्जन करें । इस ग्रंथमाला के अंतर्गत सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है हस्तप्रत सूची (catalogue) प्रकाशन का । जिसमें मुनिराज श्री पुण्यविजयजी द्वारा संकलित संस्कृत-प्राकृत भाषाबद्ध लगभग ७६०० हस्तप्रतों के सूचीकरण का कार्य विद्वानों द्वारा किया गया है। तथा मुनिराज श्री पुण्यविजयजी संकलित व आचार्यश्री विजयदेवसूरि तथा आचार्य श्री क्षान्तिसूरि हस्तप्रतसंग्रह की हस्तप्रतों की सूचि प्रकाशित की गई है। इस प्रकाशन में वेद-स्मृति-पुराण-इतिहास-तत्त्वज्ञान-जैनसाहित्य संबद्ध हस्तप्रतों की सूची दी गई है, जो सर्वजनसामान्योपयोगी हैं। ये प्रकाशन प्रधानसंपादक पंडित श्री दलसुखभाई मालवणिया और श्री अंबालाल पी. शाह द्वारा ई. स.१९६३-६८ में प्रकाशित हुए हैं। जेसलमेर ज्ञानभण्डार की सूचि भी सन् - १९७२ में ग्रंथांक-३६ के रूप में प्रकाशित हुई, जो जेसलमेर के ५ ज्ञानभण्डारों में सुरक्षित कागज़ व ताड़पत्त्रीय हस्तप्रतों की सूचि कृति, कर्ता व ऐतिहासिक वर्णनपरक परिशिष्टों के साथ प्रकाशित हुई । For Private and Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ गुजराती हस्तप्रतों की सूचि भी ई. स.१९७८ में पंडित श्री दलसुखभाई मालवणिया व श्री नगीनभाई जे. शाह के प्रधानसंपादकत्व में प्रकाशित हुई है। ला. द. भा. सं. वि. हस्तप्रतसंग्रह की हस्तप्रतों की सूचि का प्रकाशन २ भागों में प्रधानसंपादक डॉ. जितेन्द्र बी. शाह द्वारा १३७ व १३८वें ग्रंथांकों के रूप में ई. स. २००३ में प्रकाशित हुआ, जो कि शोधाकांक्षियों के लिए उनके शोधकार्य में बहुत उपयोगी हैं। ___ क्षमाश्रमण श्री जिनभद्रगणि (विक्रमसंवत् छठी शताब्दी) विरचित विशेषावश्यकभाष्य (आवश्यकसूत्र की प्राकृत नियुक्ति के सामायिक अध्ययन का भाष्य) पर स्वोपज्ञ संस्कृत टीका का ३ भागों में प्रथमादर्श प्रकाशन हुआ, जो कि जैन श्रमणवृन्द व विद्वत्समाज के लिए उपयोगी प्रकाशन है। वाचक श्री जिनमाणिक्य गणि प्रणीत रत्नाकरावतारिकाद्यश्लोकशतार्थी जिसमें जिनमाणिक्यगणिद्वारा प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकारकीरत्नाकरावतारिका टीका के आद्यश्लोक की १०० विभिन्न अर्थ सहित शतार्थीव्याख्या के रूप में रचना की गई है। उसकी समीक्षित आवृत्ति का संपादन पंडित बेचरदास जे. दोशी के प्रधानसम्पादकत्व में ई. स.१९६७ में किया गया। __ वागडगच्छीय श्रीचंद्रसूरिशिष्य आचार्य श्री हरिभद्रसूरिकृत अपभ्रंशभाषा में निबद्ध २२वें तीर्थंकर श्री नेमिनाथजी के ९ भवों का चरित्रात्मक काव्य नेमिनाहचरिउ जिसकी रचना वि.सं.१२१६में की गई है, यह ग्रंथ ९ अध्यायों में विभक्त है तथा गाथाप्रमाण- ८००० प्रायः है, इसका २ भागों में श्री हरिवल्लभ सी. भायाणी व श्री मधुसूदन सी. मोदी द्वारा ई. स.१९७०-७१ में समीक्षित पाठ के रूप में प्रथम संपादन किया गया। तपागच्छीय महोपाध्याय श्री धर्महंसगणि शिष्य वाचकेन्द्र श्री इन्द्रहंसगणि प्रणीत भुवनभानुकेवलि चरिय जिसकी रचना वि.सं.१५५४ में की गई है, जिसमें गाथा-२१०० हैं और ग्रंथाग्र-२५६० है मुनिश्री रमणीकविजयजी द्वारा संपादित ई. स.१९७६ में समीक्षित आवृत्ति का प्रकाशन किया गया है। आचार्य श्री वर्धमानसूरिकृत प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ के जीवन पर प्राकृत रचनाओं में विशालता की अपेक्षा सर्वप्रथम 'जुगाइजिणिंदचरिय' For Private and Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 28 SHRUTSAGAR October-2016 (वि.सं.११६०, अध्याय-५, गाथा-३५९२) श्री रूपेन्द्रकुमार पगारिया द्वारा संपादित समीक्षित पाठ का ई. स.१९८७ में प्रकाशिन किया गया। इसके अतिरिक्त यदि अन्य प्रकाशनों की बात करें तो- प्राकृत विभाग, गुजरात विश्वविद्यालय द्वारा मार्च-१९७३ में आयोजित Proceedings of the Seminar on Prakrit Studies सेमिनार में सारस्वतपंडितों द्वारा प्रस्तुत शोधलेखों को डॉ. के.आर.चन्द्रा द्वारा संपादित करके प्रकाशित किया गया। डॉ. कृष्णकुमार दीक्षित ने अपनी विद्यावारिधि पदवी हेतु लिखित Early Jainism विषयक ९ अध्यायों में निबद्ध शोधग्रंथ लोगों को जैनधर्म के क्रियाकलापों से अवगत कराता है। डॉ. जे.सी.सिकदर द्वारा संशोधित जैनीय जीवविज्ञान (Jaina Biology) का प्रकाशन किया गया, जो जैनधर्मानुसार जीवशास्त्रीय परिशीलन का एक महत्त्वपूर्ण शोधग्रंथ है। ___ डॉ. सुझुको ओहिरा (Suzuko Ohira) ने Ph.D. पदवी के लिए A Study of Tattvarthasutra with Bhasya विषय पर शोधग्रंथ लिखा, जिसमें तत्त्वार्थसूत्र व भाष्य का गहनाध्ययन किया गया है। __ आचार्यश्री अरिसिंहप्रणीत कविशिक्षा की काव्यकल्पलतावृत्ति (अमरचन्द्रयति) के साथ परिमल टीका (काव्यकल्पलतावृत्ति की स्वोपज्ञ टीका) व मकरंद टीका (शुभविजय गणि) की प्रथमादर्श आवृत्ति इसी ग्रन्थमाला अन्तर्गत रमेशचन्द्र एस. बेटाई के द्वारा संपादन किया गया, जो कि एक महत्वपूर्ण प्रकाशन सिद्ध हुआ। एल.डी.व्याख्यानमाला के अन्तर्गत डॉ. बिमलकृष्ण मतिलाल(University Of Toronto, Canada) Get The Central Philosophy Of Jainism विषय पर दिए गए ३ व्याख्यानों का लिखित स्वरूप में प्रकाशन। आचार्यश्री पद्मसुन्दरसूरिप्रणीत ७ सर्गनिबद्ध २३वें तीर्थंकर भगवान् श्रीपार्श्वनाथ का चरित्र ‘पार्श्वनाथचरितमहाकाव्य' का विविध हस्तप्रतों के आधार पर पाठान्तर, विस्तृत प्रस्तावना व विशिष्ट परिशिष्ट के साथ प्रकाशन । For Private and Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रुतसागर www.kobatirth.org 29 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अक्टूबर-२०१६ प्राकृतभाषामय आचार्यश्री देवसूरिप्रणीत 'सिरिपउमप्पहसामिचरियं’ (श्रीपद्मप्रभस्वामीचरित्रम्) रूपेन्द्रकुमार पगारिया द्वारा पाटण के ज्ञानभण्डारों से प्राप्त हस्तप्रतों के आधार पर किये गये समीक्षित संपादन का प्रकाशन । उसी तरह आचार्यश्री जसदेवसूरिकृत 'सिरिचंदप्पहसामिचरियं' (वि.सं.-११७८, ६४०० गाथायुक्त) का रूपेन्द्रकुमार पगारिया द्वारा जैसलमेर ज्ञानभण्डार से प्राप्त एक मात्र ताडपत्रीय हस्तप्रत के आधार पर किये गये समीक्षित संपादन का प्रकाशन । कलिकालसर्वज्ञ आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी के शिष्यरत्न रामचन्द्रगुणचन्द्र विरचित द्रव्यालंकार का स्वोपज्ञ टीका के साथ मुनिश्री जम्बुविजयजी द्वारा समीक्षित संपादन किया गया, जिसमें विस्तृत प्रस्तावना के साथ रामचन्द्रगुणचन्द्र का जीवन व कृतित्व भी उल्लिखित है। और अभी हाल ही में Jain Vastrapat (Jain Paintings on Cloth and Paper) व Jain Vastrapatas (Roll ) जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं। इसके अतिरिक्त Sambodhi नामक त्रैमासिक/वार्षिक पत्रिका भी प्रकाशित हो रही है तथा समय-समय पर अनेक विद्वानों द्वारा प्रस्तुत व्याख्यानसंग्रह, लेखसंग्रह व साहित्यान्वेषी शोधपत्रों का प्रकाशन भी होता रहा है। Jain Ontology जैसे जैनसाहित्यसंवर्धक प्रकाशन भी प्रकाशित हुए। संस्था द्वारा आयोजित विविध व्याख्यानमाला अंतर्गत शास्त्रसंरक्षण के लिए कटिबद्ध ऐसे विद्वानों के प्रवचन/व्याख्यान के प्रकाशन भी सराहनीय रहे हैं । लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला में प्रकाशित छोटे से छोटा प्रकाशन भी दार्शनिक, भाषावैज्ञानिक, धार्मिक व संशोधनात्मक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जो संशोधनक्षेत्र के छात्रों के लिए मददगार सिद्ध हो रहे हैं। श्रुतोपासकों द्वारा स्थापित एवं संरक्षित यह ज्ञानगंगा आज भी अक्षुण्णरूप से प्रवहनशील है। यह भगीरथी नित्य अपने ज्ञान से हमारी व आप सारस्वतों की ज्ञानपिपासा की तृप्ति के लिए अनवरत बहती रहे, इसी शुभेच्छा के साथ । For Private and Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir કેટલાંક મહત્ત્વનાં ફરમાનપત્રો સંગ્રાહક-મુનિશ્રી ન્યાયવિજયજી (બ) (ત્રીજું ફરમાન) (ગતાંકથી આગળ) આ ફરમાન પણ ગુજરાત (શહેર)ના હાકેમ તથા અમલદારોના ઉપર કાઢવામાં આવ્યું છે. સદરહુ શહેરમાં રહેતા મહાજનોમાં લોકા નામની એક કોમ વસે છે. તે કોમ અમારા દરબારમાં આવી, ને હેણે અમારી મદદ માટે અરજ ગુજારી કે શાંતિદાસ, સૂરદાસ વગેરે મહાજનો અમારી જોડે ખાનપાનનો તથા સગપણનો વ્યવહાર રાખતા નથી. આ ઉપરથી આફતાબ જેવી પ્રકાશિત દરબારમાંથી એવો હુકમ કાઢવામાં આવે છે કે ઉંચા દરજ્જાના શરીઅત તથા દેદીપ્યમાન એવા (હમારા) ધર્મ પ્રમાણે પરસ્પર ખાવા પીવાનો કે સગપણનો વ્યવહાર રાખવો એ બંને પક્ષની રાજીખુસી તથા રઝામંદી (ઇચ્છા) ઉપર આધાર રાખે છે. તેથી જો એમની તે બાબતની ઈચ્છા હોય તો હેમણે એક બીજા જોડે સગપણનો વ્યવહાર બાંધવો તથા પરસ્પર જમવા ખાવાની છૂટ રાખવી; પણ જો તેમ ઈચ્છા ન હોય તો કોઈ પણ શખસે કોઈ બીજાને તે બાબત અડચણ કરવી નહિ અને એને સંબંધે કોઈએ કોઈને હેરાન કરવું નહિ. તેમ છતાં જો કોઈ કોઇને હેરાન કરશે તો (હમારા) ધર્મ પ્રમાણે હેનો ન્યાય થશે. તેથી કોઈએ હમારા ફરમાનથી વિરુદ્ધ વર્તવું નહિ. લખું તારીખ ૨૭ માટે રજન્ ઉલ્ મુરજ્જબૂગાદીએ બેઠાનું વરસ ૧૮મું તે હીજરી સને ૧૦૩૪. આ લેખના ઉપરના ભાગમાં એક હોટી ચોરસ મહોર છે, તેમ એક વર્તુલ આકારની મહોર છે, તે વર્તુલની આસપાસ નવ ગોળાકાર મહોર છે. અને તે દરેકમાં બાદશાહના વડવાઓનાં તમૂર સુધીનાં નામ છે. પાછળ મહમદ દારા શકુહની મહોર છે અને ઈસ્લામખાન મારફત એ સનદ નીકલી છે એમ લખ્યું છે. (ક) (ચોથું ફરમાન) (ગુજરાતના સુબા તથા અમલદારોના અંગે જે ખેતાબો વગેરે વાપર્યા છે તેનો અમે અનુવાદ કર્યો નથી) ગુજરાતના હાલના તથા હવે પછીના સૂબાઓને માલુમ થાય કે અત્યાર For Private and Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 31 श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ પહેલાં ગૂષે ઉલ્ અકરાન્ શાંતિદાસ ઝવેરીના દેરાસરની બાબતમાં ઉત્ ઉભુલ્ક શાયસ્તખાનના નામ પર ફરમાન નીકળ્યું હતું કે શાહજાદા સુલ્તાન ઔરંગઝેબ બહાદૂરે ત્યાં થોડા મેહરાબ (કમાનો) બનાવી તેને મસ્જિદનું નામ આપેલું, અને ત્યારબાદ મુલ્લા અબ્દુલ હકામે અરજ કરી જણાવ્યું કે એ મકાન પર બીજો માણસ પોતાનો હક હોવાનો દાવો કરે છે, તેથી આપણઆ પાક ધર્મ મુજબ એ મસ્જિદ ગણાય નહિ. આ ઉપરથી બાદશાહી હુકમ નીકળ્યો હતો કે એ મકાન સતિદાસ (શાંતિદાસ) ની મીલ્કત જોડે તાલુકો (સંબંધ) ધરાવે છે અને નામદાર શાહજાદાએ મહેરાબની શિકલવાળા મકાનનો ત્યાં પાયો નાખ્યો છે, તેથી તેને કોઈ રીતે હરકત થવી જોઈએ નહિ, તેથી એ મેહરાબને ત્યાંથી ખસેડી નાખવો અને મજકૂર મકાન તેને હવાલે કરી દેવું, હવે આ બાબતમાં આખી દુનિયા જેને તાબે છે એવા બાદશાહનો એવો હુકમ નીકળ્યો છે કે ઉંચા દરજ્જાના નામદાર શાહજાદાએ જે મેહરાબ બનાવ્યો છે તે કાયમ રાખવો અને દેરાસર અને મેહરાબની વચમાં મેહરાબની પાસેથી એક દિવાલ ચણી લેવી કે જેથી એ બે વચ્ચે એક પડદો થાય. એટલા માટે હુકમ કરવામાં આવે છે કે ઉંચા દરજ્જાના બાદશાહના બંદાઓએ જ્યારે મજકુર સતિદાસ (શાંતિદાસ)ને એ દેરાસર મહેરબાનીની રાહે બક્ષિસ જ આપ્યું છે, ત્યારે આગળની રીત મુજબ તે તેનો કબજો લઇ લે, અને પોતાના ધરમ મુજબ જેમ ચાહે તેમ તેમાં પૂજા કરે અને કોઈ પણ માણસ તેમાં તેને હરકત કે અટકાવ કરી શકે નહિ. અને વળી કેટલાએક ફકીરો જેઓ ત્યાં મુકામ કરી પડ્યા છે! તેમને ત્યાંથી ખસેડી સતિદાસને તેમના તરફથી થતી અડચણ તથા તેમના તરફથી ઊભા થતા કજીઆમાંથી મુક્ત કરવો, અને વળી હમને એવું પણ જણાવવામાં આવ્યું છે કે બાવરી જાતના કેટલાક માણસોએ દેરાસરની ઈમારતનો મસાલો ઉપાડી લૂંટી ગયા છે. તો ગમે તે પ્રકારે પણ એ મસાલો પાછો મેળવી મજકૂર શક્સને આપવો, અને જો તે લોકોએ તે વાપરી નાખ્યો હોય તો તેમની પાસેથી તહેની કીંમત લઇને સતિદાસને આપવી. આ બાબત આ બાદશાહી ફરમાન છે એમ ગણી તેનાથી વિરુદ્ધ યા ઊલટું કોઈએ ચાલવું નહિ. લખું તારીખ ૨૧ મહીનો જમાદી ઉલ્લાની સને (હી) ૧૦૮૧ મથાળે મહોર સીક્કો શાહજહાનના પુત્ર મહમદ દારા શકુહનો છે. - શ્રી જૈન સત્યપ્રકાશ ઈ.સન ૧૯૪૩ વર્ષ-૯ અંક-૨માંથી સાભાર (વધુ આવતા અંકે) For Private and Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंदर के टाईटल में दर्शित त्रि-दिवसीय रत्नत्रयी महोत्सव की झलकियाँ ___ श्री कल्पेशभाई वी. शाह ने बताया कि मुनि श्री पद्मरत्नसागरजी म. सा. जिनका जन्म आसाम की भूमि शिलोंग में दिनांक १८/०९/१९६७ को हुआ था. राष्ट्रसन्त जैनाचार्य श्री पद्मसागरसूरिजी म. सा. के पावन सान्निध्य में आत्मसाधनामग्न गुरुसेवाभावी लघुबंधु मुनि श्री प्रशांतसागरजी म.सा. की संयम यात्रा से आकर्षित होकर स्वयं भी उसी मार्ग को अपनाने की उत्कट भावना से ओत-प्रोत होकर राष्ट्रसन्त से संयम दीक्षा ली. ज्ञानोपासना के साथ साधुजीवन सुंदररूप से व्यतीत किया. उन्होंने आचार्य श्री कैलाससागरसूरि ज्ञानमंदिर कोबा द्वारा प्रकाशित होने वाले लघु जैन पंचांग, कैलासपद्मस्वाध्यायसागर के ९ भाग, जीवन यात्रा का राजमार्ग, चरणोनी सेवा नित-नित चाहुं, जिणंदजी भवजल पार उतार, साधुभाई समय सुधारस पीजे, सर्वमंगल मांगल्यं आदि लोकप्रिय प्रकाशनों को प्रकाशित कराकर ज्ञान का लाभ समाज को दिया. ३० साल के दीक्षा पर्याय में गुरुदेवश्री के पावन सान्निध्य में रहकर अपनी आत्मसाधना व शासन प्रभावना के कार्य में सहभागी बने. स्वाध्याय जिनका जीवनमंत्र था वैसे मुनिश्री ४९ वर्ष की अल्पायु में ही श्रावण वद ७ दिनांक २६/०७/२०१६ को अपनी संयम यात्रा समाप्त कर स्वर्गवासी हो गए. उस प्रसंग के उपलक्ष्य में श्री पुष्पदंत श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संघ एवं पूज्यश्री के सांसारिक परिवार (गुज.) कड़ी निवासी मातुश्री हसुमतीबेन सुरेन्द्रभाई संघवी परिवार द्वारा दिनांक १६/०९/२०१६ से त्रिदिवसीय रत्नत्रयी महोत्सव का सुन्दर आयोजन किया गया. इस कार्यक्रम में प्रथम दिन को मुनिश्री की साधना के विशेष इष्ट स्तोत्र महाप्रभावक श्री उवसग्गहरं स्तोत्र युक्त श्री पार्श्वनाथजी का विशिष्ट अनुष्ठान किया गया, द्वितीय दिन भव्य स्नात्र-महोत्सव जिसमें सुश्रावक श्री ललितभाई धामी (तपोवन वाले) व साबरमती संगीत मंडल ने स्नात्र महोत्सव की रमजट जमाई. तृतीय दिवस को संयम-वन्दना समारोह का आयोजन किया गया जिसमें बारडोली वाले सुश्रावक श्री दीपकभाई द्वारा संगीतबद्ध संवेदना की अविरत धारा बहाई गई. इस प्रसंग पर पूज्य गुरुदेव आचार्यश्री ने भी मुनिप्रवर के विशेष गुणों पर प्रकाश डाला. कार्यक्रम में बड़ी संख्या में श्रद्धालु उपस्थित रहे, तत् पश्चात् सकल श्रीसंघ की साधर्मिकभक्ति की गई. इस प्रकार सारा कार्यक्रम सानंद संपन्न हुआ. For Private and Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra C C www.kobatirth.org COC Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Lalalalal O isisisiosil आत्म-जागरण का महापर्व : भव्य चातमास राष्ट्रसंत परम श्रदेय आचार्यप्रवर श्री पासागरसूरीश्वरजी महाराजा आदिशरि दाउमा-अनी बुट Cate-13A.INGER पर नरममा गुरुगुण गान करते हुए श्री कल्पेशभाई शाह COCOPE clasic calcio OOOOO , IDurwance आत्म-जागरण का महापर्व : भव्य चातमास राष्ट्रसंत परम अद्वेष आचार्यपवर श्री पासागरसूरीश्वरजी महाराजा आदि सी-पदायम Nolala ho0000000 soladis hocom0000 गुरुगुण गान करते हुए श्री दीपकभाई बारडोली lalalalcolol Poorc000000 biolalalai icolesiololoid आदि सरि-पदस्य श्रमणका "श्री पुष्पादन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक जैन संत नमो श्री गुरवे नमः॥ सद्गुरु शरणं मम ॥ जातस्मै श्री गुरवे ॥ सद्गुरु csicsicsicsico शिष्य की संयमयात्रा का वर्णन करते हुए पू. गुरुभगवंतश्री PIPTI Oරටටම 2009 ciciciciclic For Private and Personal Use Only Sicicici calcio Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org COCO Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Registered Under RNI Registration No. GUJMUL/2014/66126 SHRUTSAGAR (MONTHLY). Published on 15th of every month and Permitted to Post at Gift City so, and on 20th date of every month under Postal Regd. No. G-GNR-338 issued by SSP GNR valid up to 31/12/2018. कालाdaldalcicalcाला localcicाल (sik નાથાલાલ મહેતા MARALA HOT Sla SATATATATATATA lediasisisiaslele स्वाध्याय प्रेमी सद्गत प. पू. मुनिराजश्री पद्मरत्नसागरजी म.सा. की / स्मृति में त्रिदिवसीय महोत्सव प्रसंग पर उपस्थित सकल श्रीसंघ Cocococcomprepar000000000000 asicstatciciclo ciclicica BOOK-POST / PRINTED MATTER 200 Calc प्रकाशक Siciolol श्री महावीर जैन आराधना केन्द्र, कोबा आचार्य श्री कैलाससागरसरि ज्ञानमंदिर गांधीनगर 382007 फोन नं. (079) 23276204, 205, 252, फेक्स (079) 23276249 Website : www.kobatirth.org email: gyanmandir@kobatirth.org Printed and Published by . HIREN KISHORBHAI DOSHI, on behalf of SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. And Printed at : NAVPRABHAT PRINTING PRESS, 9, Punaji Industrial Estate, Dhobighat, Dudheshwar, Ahmedabad-380004 and Published at : SHRI MAHAVIR JAIN ARADHANA KENDRA, New Koba, Ta.&Dist. Gandhinagar, Pin-382007, Gujarat. Editor : HIREN KISHORBHAI DOSHI Sicles Ciclosca For Private and Personal Use Only c c clcsicsicsics