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नवपद स्तवन
डॉ. उत्तमसिंह कृति परिचय : मारुगुर्जर भाषा में निबद्ध प्रस्तुत कृति जैनाचार्य श्री अमृतसूरिजी म. सा. की रचना है। लगभग सवासौ वर्ष प्राचीन व प्रायः अद्यपर्यन्त अप्रकाशित इस कृति में सिद्धचक्र-नवपदजी की आराधना का सुन्दर वर्णन किया गया है। __ जैनशासन में इस आराधना का विशिष्ट महत्त्व है। इसमें मुख्यरूप से श्री अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप इन नवपदों की आराधना का विधान है। इसी कारण यह आराधना नवपदजी के नाम से प्रसिद्ध है। इस कृति में चार-चार गाथाओं के द्वारा प्रत्येक पद की स्तुति की गई है तथा अन्तिम दो गाथाओं में कर्ता ने रचनाप्रशस्ति लिखी है।
श्री सिद्धचक्रजी में सबसे मुख्य और प्रथम मण्डल इन नवपदों का है। शाश्वती ओली के दिनों में इन नवपदों को ध्यान में रखकर नौ दिनों तक प्रतिदिन आयंबिलपूर्वक एक-एक पद की आराधना की जाती है। धर्म का सम्पूर्ण सारभूत तत्त्व श्री सिद्धचक्रजी में संग्रहीत है। अतः इसकी आराधना के द्वारा समग्र धर्म की आराधना सुलभ बन जाती है।
दुर्लभ मनुष्यजन्म प्राप्त करके जीवन में विशुद्ध भावपूर्वक श्री सिद्धचक्रजी की आराधना करना विवेकी आत्माओं का एक श्रेष्ठ कर्तव्य है। मोक्षपद की प्राप्ति करानेवाले समस्त धर्मकार्यों में नवपद आराधना का श्रेष्ठ स्थान है। साधक इसके आलंबन से ही आत्मकल्याण के मार्ग में सच्ची प्रगति साध सकता है। श्री सिद्धचक्रजी की आराधना से आत्मकल्याणकारी सद्गुणों का विकास होता है और आत्मा के दोषरूपी शत्रुओं का ह्रास होता है। इसी कारण दिनप्रतिदिन आराधना में प्रगति होती जाती है। ___ श्री सिद्धचक्रजी समस्त सद्गुणों के संग्रहस्थान हैं। जगत् में एक भी सद्गुण ऐसा नहीं दिखता जो कि सिद्धचक्रजी में विद्यमान न हो। इसी कारण श्री सिद्धचक्रजी को सद्गुणरूपी रत्नों की खान अथवा रत्नाकर की उपमा दी गई है।
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