SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 13 ॥३॥ श्रुतसागर अक्टूबर-२०१६ अष्टम पद चारी(रि)त्र सी(शि)वसुखदाइ री। पंच आश्रवनो हेय संबर समाइ री ॥१॥ खंती मद्दव अज्जव मुत्ती तपधारी री। इत्यादीक दस धर्म मे जाउं वलीहारी (री) ॥२॥ षट्खंडको ऐश्वर्य चक्री तृणवत् त्यागी री। धारी निर्मलभाव भए संजम रागी री अगणी(णि)त गुण चारी(रि)त्र चंदवरन हितकारी री। कहै अमृतसु(सू)रीश धनधव जयकारी (री) ॥४॥ ॥इति अष्टमपदस्तुति ।। नवमो तपपदधार वाज्य(बाह्य) अभ्यंतर भेदे री। सुचीधर ची(चि)त्तनी(नि)रोध दुष्टध्यान छेदे री ॥१॥ करम सघन होय दूर अष्ट महासी(सि)द्ध पावें री। लवद्धी(लब्धि) अठावीस ए तपनें प्रभावें (री) ॥२॥ धारी नी(नि)रमलभाव सुरनरवर सेवें री। पंचमज्ञानी उपाय मुक्तीसुख लेवें री ए नवपदनो ध्यान धनपतसिंघ ध्यावे री। कहें अमृतसू(री)श वंच्छी(छि)त फल पावै (री) ॥४॥ ॥ इति नवमपदस्तवनः ।। ए नवपदनी स्तुति कीधी बुधी अनुसार । भूलचूक जो होय तो लेज्यौ कवी(वि) सुधार संवत् नंद युग निधि रमा आश्विन सीतेतर सार। सिद्धचक्रगुण वर्णव्या ती(ति)थ नवमी गुरुवार ॥२॥श्री।। ॥३॥ ॥१॥ For Private and Personal Use Only
SR No.525315
Book TitleShrutsagar 2016 10 Volume 03 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiren K Doshi
PublisherAcharya Kailassagarsuri Gyanmandir Koba
Publication Year2016
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Shrutsagar, & India
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy