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श्रुतसागर
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अक्टूबर-२०१६
प्राकृतभाषामय आचार्यश्री देवसूरिप्रणीत 'सिरिपउमप्पहसामिचरियं’ (श्रीपद्मप्रभस्वामीचरित्रम्) रूपेन्द्रकुमार पगारिया द्वारा पाटण के ज्ञानभण्डारों से प्राप्त हस्तप्रतों के आधार पर किये गये समीक्षित संपादन का प्रकाशन ।
उसी तरह आचार्यश्री जसदेवसूरिकृत 'सिरिचंदप्पहसामिचरियं' (वि.सं.-११७८, ६४०० गाथायुक्त) का रूपेन्द्रकुमार पगारिया द्वारा जैसलमेर ज्ञानभण्डार से प्राप्त एक मात्र ताडपत्रीय हस्तप्रत के आधार पर किये गये समीक्षित संपादन का प्रकाशन ।
कलिकालसर्वज्ञ आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरीश्वरजी के शिष्यरत्न रामचन्द्रगुणचन्द्र विरचित द्रव्यालंकार का स्वोपज्ञ टीका के साथ मुनिश्री जम्बुविजयजी द्वारा समीक्षित संपादन किया गया, जिसमें विस्तृत प्रस्तावना के साथ रामचन्द्रगुणचन्द्र का जीवन व कृतित्व भी उल्लिखित है।
और अभी हाल ही में Jain Vastrapat (Jain Paintings on Cloth and Paper) व Jain Vastrapatas (Roll ) जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं।
इसके अतिरिक्त Sambodhi नामक त्रैमासिक/वार्षिक पत्रिका भी प्रकाशित हो रही है तथा समय-समय पर अनेक विद्वानों द्वारा प्रस्तुत व्याख्यानसंग्रह, लेखसंग्रह व साहित्यान्वेषी शोधपत्रों का प्रकाशन भी होता रहा है। Jain Ontology जैसे जैनसाहित्यसंवर्धक प्रकाशन भी प्रकाशित हुए। संस्था द्वारा आयोजित विविध व्याख्यानमाला अंतर्गत शास्त्रसंरक्षण के लिए कटिबद्ध ऐसे विद्वानों के प्रवचन/व्याख्यान के प्रकाशन भी सराहनीय रहे हैं ।
लालभाई दलपतभाई ग्रंथमाला में प्रकाशित छोटे से छोटा प्रकाशन भी दार्शनिक, भाषावैज्ञानिक, धार्मिक व संशोधनात्मक दृष्टिकोण से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, जो संशोधनक्षेत्र के छात्रों के लिए मददगार सिद्ध हो रहे हैं। श्रुतोपासकों द्वारा स्थापित एवं संरक्षित यह ज्ञानगंगा आज भी अक्षुण्णरूप से प्रवहनशील है। यह भगीरथी नित्य अपने ज्ञान से हमारी व आप सारस्वतों की ज्ञानपिपासा की तृप्ति के लिए अनवरत बहती रहे, इसी शुभेच्छा के साथ ।
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