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श्रुतसागर
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अक्टूबर-२०१६ विषयों में ज्ञानप्रौढ़ ऐसे पंडित श्री दलसुखभाई डाह्याभाई मालवणिया थे।
उनका जन्म दिनांक-२२/७/१९१० को सुरेन्द्रनगर के सायला गाँव में हुआ। बाद में बीकानेर, जयपुर व ब्यावर में अपना स्नातकाभ्यास पूर्ण करके शतावधानी मुनिश्री रत्नचन्दजी से कच्छ के अंजार चातुर्मास दौरान अध्ययन, शान्तिनिकेतन में विबधशेखर भट्टाचार्यजी से पालिभाषा व बौद्धदर्शन का अभ्यास तथा वहीं पर आचार्य श्रीजिनविजयजी से प्राकृत-भाषा-साहित्य का ज्ञान प्राप्त किया, ऐसे बहुत से आह्लादक प्रसंगों से अपने ज्ञान को परिमार्जित करते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में जैनसंकाय में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए। ___ मुनिश्री पुण्यविजयजी प्रेरित दिल्ली की प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी में बतौर मंत्री के पद पर नियुक्त किए गए और मुनिश्री पुण्यविजयजी की ही प्रेरणा से ई. स.१९५७ में शेठश्री कस्तूरभाई लालभाई द्वारा प्रस्थापित लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर में निदेशक की भूमिका को स्वीकार किया व इस संस्थान में प्रकाशन-संपादन-संशोधन-ग्रंथमालासंपादन आदि कार्यों का वहन कर ई. स.१९७६ में सेवानिवृत्त हुए एवं निवृत्त्यनन्तर भी संस्था उनके ज्ञान से लाभान्वित होती रही।
पं. दलसुखभाई के साथ व उनके बाद में भी संस्थान को असीमित ज्ञानसमृद्ध और प्रतिभाशाली ज्ञानोपासनारत प्रधानसंपादक प्राप्त हुए, जिनमें श्री अंबालाल पी. शाह, श्री नगीनभाई जीवनलाल शाह, श्री हरिवल्लभ चुनीलाल भायाणी, पंडित बेचरदास दोशी, श्री रमेशभाई एस. बेटाई, श्री यज्ञेश्वरभाई एस. शास्त्री और वर्तमान में प्रधानसंपादक की धुरी को धारण कर रहे डॉ. जीतेन्द्रभाई बी. शाह। ___ इन विद्वानों के मार्गदर्शन से ही ग्रंथमाला का प्रकाशन अविच्छिन्नरूप से हुआ व आज भी वह ज्ञानधारा अनवरत साहित्यजगत् को आप्लावित कर रही है।
जब लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर या मुनिश्री पुण्यविजयजी म. सा. के साथ संलग्न विद्वानों कि बात हो तो फिर हम लिपिविशारद श्रीलक्ष्मणभाई भोजक (लक्ष्मणकाका) को कैसे भूल सकते हैं,
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